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________________ वैराग्य सम्बोधन की पुष्टि के लिए प्रायः की जाती हैं। हम दूसरों से किस प्रकार ऊँचे कहलावे और हम अपने सामने दूसरों को किस प्रकार नीचा दिखाएँ, यह भावना तप-त्याग के मूल में होती है तो कपाय पोषण-ही उसका मूल्य रह जाता है। यही कारण है कि उस तप-त्याग के विद्यमान होने पर भी संसार-भ्रमण का अन्त नहीं होता वरन् वह और अधिक बढ़ता है। अतश्व यहां सूत्रकार कहते हैं कि जो अविवेकी जन दूसरे का तिरस्कार करता है, वह चार गति रूप संसार में रहंट की घड़ियों की भांति भ्रमण करता है और उसका भ्रमण चिरकाल तक चालू रहता है। क्योंकि ईक्षणिका अर्थात् परनिन्दा पाप का कारण है। ऐसा समझ कर मुनि अपने तप.त्याग-ज्ञान ध्यान का अभिमान करके दूसरों को नीचा दिखाने का कदापि प्रयत्न नहीं करते हैं। तात्पर्य यह है कि तपस्या आदि वाहा क्रियाओं के आचरण का एक मात्र उद्दे. श्य आत्मशुद्धि होना चाहिए। अपना महत्व सिद्ध करने के लिए चाहा क्रियाओं का आचरण नहीं करना चाहिए ! वाह क्रियाएं इतनी पवित्र हैं कि उन्हें कीर्ति का वाहन बनाने वाला पुरुप घोर अविवेकी है और उनकी प्रकारान्तर से पालातना करता है। वह उन महान् क्रियाओं को अपनी क्षुद्र कीर्ति का कारण बनाकर उनके चास्तविक फल से वंचित हो जाता है। लेकिन जब वह उन क्रियाओं को परनिन्दा का साधन बनाता है, तब तो उसके पाप की गुरुता और भी अधिक बढ़ जाती है और परिणाम यह होता है कि उसे दीर्घकाल तक संसार में भटकना पड़ता है। इस केचली प्ररूपित तत्त्व को विदित करके पर-निन्दा से सदैव बचना चाहिए और अपने वो ऊँचा सिद्ध करने के लिए दूसरों को नीचे गिराने का वाचनिक प्रयास नहीं करना ব্যায়। मूलः-जे इह सायाणुगा नरा, अज्झविवन्ना काहिं मुच्छिया किवणेण समं पगव्यिा, न वि जाणंति समाहियाहितं ।। हायाः-य इछ सालानुना नराः, प्रत्युपपन्नाः काममूहिताः। हपणेन समं प्रगस्मिताः, न धिजाननित समाधिमारपातम् ॥ ७ ॥ शब्दार्थ:-जो पुरुष इस लोक में सुख का अनुसरण करते हैं, तथा ऋद्धि, रस और माता के गौरव में भासक हैं और काम भोग में मूर्थित हैं, वे इन्द्रियों के दासों के समान काम भोगों में भ्रष्ट बन जाते हैं और कहने पर भी धर्म ध्यान को नहीं समाते है। :-सप्रकार ने यहां यद प्रदर्शित किया है कि किस प्रकार के परुप समाधि सर्धात् धर्म ध्यान की धाराधना करने में असमर्थ होते हैं। जो पुरय मातानुगामी होत अर्थात् लुम्न के पीछे-पीछे चलते हैं और दुःसा सेनयमान कर प्रात मुरण का किंचित् अंश भी त्याग नहीं करते, ये समाधि की mना नहीं कर सकते । जिन वस्तुओं के सेवन स इन्द्रियों को मुख की अनुभूति
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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