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________________ चौदहवां अध्याय होती है और चित्त में प्राह्लाद होता है, उन वस्तुओं का त्याग करने में असमर्थ पुरुष उनका सेवन करता है। धर्म की उपासना के लिए यदि उनका त्याग करना आवश्यक होता है तो वे धर्म का ही त्याग कर देते हैं। अतएव धर्माराधना की अभिलाषा रखने चाले पुरुषों को सर्वप्रथम साता-शीलता का त्याग कर देना चाहिए। भगवान् ने इसीलिए कहा है-'पायावयाहि चय लोगमलं' अर्थात् कष्ट सहन करो-सुकुमारता त्यागो । जो सुकुमार हैं, अपने शरीर को कष्टों से बचाने के लिए निरन्तर व्यन रहते हैं, षे अवसर आने पर धर्म में दृढ़ नहीं रह सकते। 'अध्युपपन्ना' का अर्थ है-ऋद्धि, रस, और साता में श्रासक्त । ऋद्धि नादि में श्रासक्त तथा कामभोगों में मूञ्छित मनुष्य अन्त में धृष्ट बन कर अपना अहित करते हैं । वे वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट समाधि को नहीं प्राप्त कर सकते। मूलः-अदक्खुव्व दक्खुवाहिय, सद्दहसु अदक्खुदंसणा। हंदि हु सुनिरुद्धदसणे, मोहणिजेण कडेण कम्मुणा ८ छायाः-अपश्यवत् पश्यन्याहतं श्रद्धत्स्व अपश्यदर्शन ! ___ गृहाण हि सुनिरुद्धदर्शनाः, मोहनीयेन कृतेन कर्मणा ॥८॥ शब्दार्थः-हे अन्धे के समान पुरुषों ! तुम सर्वज्ञ भगवान द्वारा कहे हुए सिद्धान्ल में श्रद्धा करो। असर्वज्ञ पुरुषों के आगम में श्रद्धा रखने वाले पुरुषों ! उपार्जित किये हुए मोहनीय कर्म के उदय से जिसकी दृष्टि रुक गई है वह सर्वज्ञ प्ररूपित आगम पर श्रद्धा नहीं करता। भाष्य:-जिसे नेत्रों से दिखाई नहीं देता वह लोक मैं अन्धा कहलाता है । शास्त्रकार ने यहां अपश्य अर्थात् अन्धा न कहकर अपश्यवत् अर्थात् अन्धे के समान कहा है। जो पुरुष अपने कर्त्तव्य और अकर्त्तव्य के विचार से शून्य है-जिसकी विवेक दृष्टि जागृत नहीं हुई वह अपश्यवत् अर्थात् अम्धे के समान कहलाता है। . उसी को सम्बोधन करके यहां श्रद्धान करने का विधान किया गया है। __ कर्तव्य और अकर्त्तव्य के विवेक से शुन्य होने के कारण हे अन्धवत् ! सर्वज्ञ भगवान् के कहे हुए पागम पर श्रद्धा ला1 तथा हे असर्वज्ञ पुरुष के दर्शन पर श्रद्धा करने वाले ! अपने कदाग्रह को त्याग और सर्वश के उपदेश पर विश्वास कर । जीव मोहनीय कर्म के प्रवल उदय से सर्वच वीतराग भगवान द्वारा भव्य प्राणियों पर करुणा करके उपदिष्ट आगम पर, श्रद्धा नहीं करते। ___ यहां एक मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को स्वीकार करने वाले नास्तिक मत के अनुयायियों को तथा छमस्थ पुरुषों द्वारा प्रणीत मत का अनुसरण करने वालों को उपदेश दिया गया है। प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानने वाले नास्तिकों के मत पर पहले विचार किया जा चुका है। अनुमान और पागम को प्रमाण न मानना अनान है। अन्य यातों को
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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