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________________ mardanim u ansentiaamsantatwtice चौदहवां अध्याय पर अवलंबित है। जितने. परिमाण में अनुकूल योग्य लामग्री प्रस्तुत होगी, उतने ही परिमाण में सांसारिक सुख प्राप्त होगा। इस प्रकार की बद्धमूल धारणा के कारण सुख का अभिलाषी प्राणी अधिक से अधिक सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से अधिक स्टे अधिक सुख-सामग्री जुटाना चाहता है। उस सामग्री को जुटाने के लिए वह अधिक से अधिक आरंभ अर्थात् सावध क्रियाएँ करता है। . जैसा कि पहले बतलाया गया है, सावद्य क्रियाओं का दुष्फल उसे भोगना पड़ता है। वर्तमान काल में भी वह उस सामग्री के कारण अनेक दुःख उठाता है। सुख-सामग्री के उपार्जन में नाना प्रकार के कष्ट उपार्जित लामग्री के संरक्षण की विविध प्रकार की सदा प्रवृत्त होने वाली चिन्ताएँ और अन्त में उसके वियोग से होने वाला घोर विषाद, यह सब उस सुन-सामग्री के दान है। सुख सामग्री की बदौलत इन सब की जीव को प्राप्ति होती है। ऐसे जीव को कदापि शान्तिलाम नहीं हो सकता । अनुपम और स्थिर शान्ति की प्राप्ति उन्हीं को होती है जो सब प्रकार के प्रारंभ से विमुख हो जाते हैं तथा क्रोध, मान, माया और लोभ का परित्याग कर देते हैं । ऐसे जीव संसार में रहते हुए भी संसार में अतीत है। मूलः-जे परिभवइ परं जणं, संसारे परियत्तइ महं। .. .. अदु इंखिणिया उ पाविया, इति संखाय मुणी न मजा छाया:-यः परिभवति परं जनं. संसारे परिवर्त्तते महत् । अथ ईक्षणीका तु पापिका, इति संख्या मुनिन माघत्ति ॥ ६ ॥ शब्दार्थः-जो दूसरे का पराभव-तिरस्कार करता है वह चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता है । पराई निन्दा करना, पाप का कारण है, ऐसा जानकर मुनि अभिमान नहीं करते। ' भाष्य:-गांधा का भाव स्पष्ट है । जो मुनि विशिष्ट ज्ञानी, ध्यानी, त्यागी और तपस्वी है, उसे अपने ज्ञान, ध्यान, तप आदि का अभिमान नहीं करना चाहिए । 'में अमुक उच्च जाति में उत्पन्न हुआ हूं, मेरा गोत्र संसार भर में विख्यात एवं प्रशस्त है, मैं इतना अधिक विद्वान् हूं, शास्त्रों के मर्म का वेत्ता हूं, मैं ऐसा घोर तप. करता हूं, तुमसे कुछ भी नहीं बन पड़ता। तुम मुझ से हीन जाति के हों, तुम मेरे आगे अज्ञ हो, इत्यादि प्रकार से अभिमान करने वाला संसार मे चिर भ्रमण करता है। स्योंकि पर-निन्दा पाप का कारण है। दूध में खटाई का थोड़ा-सा अंश लम्मिलित हो जाय तो सारा दुघ फट जाता है-विकृत हो जाता है और अन्त में वह स्वयं दधि के रूप में खटाई बन जाता है। इसी प्रकार तपस्या, त्याग आदि में अभिमान कपाय का अंश सम्मिलित होने से वह तपस्या, आदि कषाय रूप परिणत हो जाती है। कारण यह है कि उस समय तप. त्याग आदि क्रियाएं आध्यात्मिक विशुद्धि के उद्देश्य से नहीं होती, किन्तु मान कपाय
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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