SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 500
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ { ४४४ भाषा-स्वरूप वर्णन प्रकृति के विषय में यह भी विचारणीय है कि, वह जब अचेतन है तो पुरुष का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए किस प्रकार प्रवृत्ति कर सकती है ? अचेतन होने के कारण उसे यह कैसे ज्ञान होगा कि ' पुरुष ' का प्रयोजन सिद्ध करना चाहिए ? प्रवृत्ति करने के पश्चात् ; जब पुरुष का प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, तब प्रकृति अपनी प्रवृत्ति रोक देती है। अचेतन प्रकृति में इस प्रकार चेतनमय की क्रियाएँ मान लेना सर्वथा असंगत है। प्रकृति अगर प्रवृत्ति करती है तो वह नित्य होने के कारण प्रवृत्ति से कदापि उपरत न होगी और पुरुष का प्रयोजन सिद्ध होने पर भी प्रवृत्ति करती रहेगी। इस प्रकार विचार करने से प्रधान के द्वारा जगत् का निर्माण होना सिद्ध नहीं होता। . . . . श्रादि शब्द से सूत्रकार ने स्वभाववाद, कालवाद, नियतिवाद श्रादि पर प्रकाश डाला है। तात्पर्य यह है कि कोई स्वभाव से सृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं, कोई काल से, और कोई नियति आदि से स्वभाववादी कहता है- : इन्तीति मन्यते कश्चित् , न हन्तीत्यपि चापरः। . स्वभावतस्तु नियती, भूतानां प्रभवात्ययौ ॥ अर्थात् कोई यह समझता है कि यह इसका वध करता है, दूसरा समझता है कि इसने इसका क्ध नहीं किया है, पर यह मान्यताएँ मिथ्या हैं। वास्तव में जीव . का जन्म और मरण स्वभाव से ही नियत हैं। कालवादी का कथन है कालो हि भूमिमसूजन, काले तपति सूर्यः । ...... काले हि विश्वाभूतानि, काले चक्षुर्विपश्यति ॥ " अर्थात् काल ने पृथ्वी की सृष्टि की है । काल के आधार पर सूर्य तपता है। . काल के आधार पर ही समस्त भूत टिके हुए हैं और काल के कारण ही बनु देखती है। अर्थात् जगत् के सभी व्यवहारों का कारण काल ही है। इसी प्रकार जन्यानां जनका. कालो जगलामाश्रयो मतः। ... अर्थात् समस्त उत्पन्न होने वाले पदार्थों का उत्पादक काल ही है और वही तीनों लोकों का आधार है। आजीवक मत नियतिवाद का समर्थन करता है। वह अपना समर्थन इस स्कार करता है: प्राप्तव्यो नियतिवलाश्रयेण .. योऽर्थः सोऽवश्यंभवति हण शुभोऽशुभो का .., भूतानां महतिकृतेऽपिहि प्रयत्ले, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥ . . . . . . अर्थात्-नियति के वल से, जीवों को जो शुभ या अशुभ प्राप्त होता है। यह मा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy