SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 501
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मामला कला है। पुरुष किया गया था क्यों न करे, चिन्ता ग्यारहवां अध्याय [ ४४५ } अवश्य ही प्राप्त होता है। कोई पुरुप कितना ही महान् प्रयत्न क्यों न करे, किन्तु जो होनहार है वह मिट नहीं सकता-होकर ही रहता है। , नियतिवाद का अर्थ है होनहार का सिद्धान्त स्वीकार करना। नियतिवादी कहते हैं न तं सयं कडं दुक्खं, को अनकडं च णं ? । सुह वा जइ वा दुक्खं, सेहियं वा असेहियं ।। सयं कडं न अन्नहि, वेदयंति पुढो जिया। संगहयं तहा तेसिं, इहमेगलिमाहियं ॥ अर्थात्-सुख और दुःख अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न नहीं होते हैं, तो दूसरे के धुरुषार्थ से तो हो ही कैसे सकते हैं ? अतएव मुक्ति-संबंधी और संसार संबंधी सुख तथा दुःख न अपने पुरुषार्थ से उत्पन्न करके जीव भोगते हैं, न दूसरे के पुरुषार्थ से उत्पन्न करके भोगते हैं । सुख और दुःख ..सांगतिक हैं-नियति से प्राप्त है। ऐसा किन्हीं (नियतिवादियों) का कथन है । ___ यदृच्छावादी, चिना किसी कारण के ही कार्य की उत्पत्ति होना मानते हैं। कांटे का तीखापन जैसे बिना किसी कारण के उत्पन्न होता है, उसी प्रकार संसार के सभी कार्य बिना कारण ही उत्पन्न होते हैं। कहा भी है पुरुपस्य हि दृष्ट्वेमामुत्पत्तिमनिमित्ततः यहच्छया विनाशं च, शोकहीवनको ॥ अर्धात्-मनुष्य की बिना किसी कारण के उत्पत्ति और बिना कारण मृत्यु देख कर शोक एवं हर्ष का अनुभव करना वृथा है। , . वास्तव में कार्य की उत्पत्ति में स्वभाव, काल श्रादि सभी कथंचित् कारण होते हैं। उनमें से अन्य कारणों को अस्वीकार करके किसी एक कारण को स्वीकार कर लेना सत्य नहीं है। इसी कारण इन सब वादों को मिथ्यावाद कहा गया है। इन का विचार पहले किया जा चुका है, अतएव यहां पिष्टपेपण नहीं किया जाता। किसी-किसी ने जगत् की उत्पत्ति स्वयंभू से बतलाई है । कहा भी है ततः स्वयंभूभगवान व्यतो व्यसपन्निदम् । महाभूतादि वृत्तीजाः, प्रादुरासीत्तमो नुदः ।। सोऽभिध्याय शरीरात स्वात सिसुनुर्विविधाः मजाः। अप एव ससर्जादो, तासु वीजमवासृजत् ॥ अर्थात् स्वयंभू पहले अव्यक्त अवस्था में था। वह याह इन्द्रियों के अगोचर था। वह पांच महाभूतों को सूचम से स्थूल अवस्था में लाने वाला तथा तम भात मलय का अन्त करने वाला प्रकट हुश्रा । अव्यक्त अवस्था से व्यक्त अवस्था में आया। उसके पश्चात् उसे प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा हुई। उसके संकल्प करते ही उसके शरीर से सर्व प्रथम जल की उत्पत्ति हुई । जल उत्पन्न होने के पश्चात् स्वयंभू ने उसमें
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy