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________________ B " यारहवां अध्याय प्रकृतेर्महान् महतोऽहंकारस्तस्माद् गणञ्च षोडशकः । तस्मादपि पोडशकात्, पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥ [ ४४३ अर्थात् - मूल प्रकृति से सर्वप्रथम बुद्धि तत्त्व उत्पन्न होता है ( प्रकृति जड़ है श्रतएव उससे उत्पन्न होने वाली बुद्धि को भी सांख्य दर्शन में जड़ माना गया है ) बुद्धि तत्व में से अहंकार की उत्पत्ति होती है । अहंकार में से पांच कर्मेन्द्रियां अर्थात् वाक्, पाणि पाद, वायु तथा उपस्थ, पांच स्पर्शन आदि ज्ञानेन्द्रियां, पांच तन्मात्राएँ ( रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द ) श्रौर मन यह सोलह पदार्थ उत्पन्न होते हैं। पांच तन्मात्राओं से पृथ्वी आदि पांच भूत उत्पन्न होते हैं । अर्थात शब्द तन्मात्रा से श्राकाश, शब्द और स्पर्श तन्मात्रा से वायु, शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्रा से अग्नि, पूर्वोक तीनों के साथ रस तन्मात्रा से जल और पांचो तन्मात्राओं से पृथ्वी की उत्पत्ति होती है । प्रकृति के जगत्- कर्त्तत्व पर अलग विचार करने की आवश्यकता ही नहीं है, क्यों कि ईश्वर के जगत्-कर्तृत्व में जो दोष आते हैं, उसी प्रकार के दोष यहां भी उपस्थित होते हैं। फिर भी संक्षेप में इस सिद्धान्त पर भी विचार कर लेना उचित होगा । सांख्य प्रकृति को एकान्त नित्य स्वीकार करते हैं । प्रकृति की नित्यता स्वी कार करते हुए उसे जगत् का कर्त्ता मानने में वही दोष हैं जो ईश्वर को सर्वथा नित्य मानने में आते हैं। इसके अतिरिक्त प्रकृति यदि एकान्त नित्य है, तो वह बुद्धि आदि अनित्य पदार्थों का उपादान कारण नहीं हो सकती । एकान्त नित्य होने के कारण प्रकृति सदैव एक रूप रहेगी। वह अपने पूर्व स्वभाव का परित्याग नहीं करेगी और उत्तर स्वभाव को ग्रहण नहीं करेगी। ऐसी स्थिति में या तो वह सदैव बुद्धि श्रादि को उत्पन्न करती रहेगी या कभी उत्पन्न नहीं करेगी । इसके अतिरिक्त प्रकृति मूर्त्त है या श्रमूर्च है ? अगर अमूर्त है तो उससे अमूर्त पदार्थ ही उत्पन्न हो सकते हैं, समुद्र आदि मूर्त्त पदार्थ नहीं हो सकते । श्रमूर्त्त उपादान से मूर्त्त उपादेय का उत्पन्न होना असंभव है । प्रकृति को यदि मूर्त्त माना जाय तो यह प्रश्न उपस्थित होता हैं कि प्रकृति आई कहां से ? उसका उत्पा दक कौन है ? अगर प्रकृति स्वयमेव उत्पन्न हो जाती है, तो लोक भी स्वयमेव क्योंन उत्पन्न हुआ मान लिया जाय ? प्रकृति की उत्पत्ति किसी अन्य पदार्थ से मानना भी उचित नहीं है । ऐसा मानना सांख्य-सिद्धान्त के विरुद्ध है और इससे प्रकृति की नित्यता नष्ट हो जायगी । शंका - प्रकृति न स्वयं उत्पन्न होती हैं, न परपदार्थ से उत्पन्न होती है। वह सदा से है और सदा रहेगी। ऐसा मानने में क्या आपत्ति है । समाधान - प्रकृति की नित्यता सिद्ध नहीं होती, यह पहले कहा जा चुका है । दूसरे, जैसे प्रकृति स्वतः सिद्ध अनादि निधन है, उसी प्रकार लोक को अनादि निधन मान लेने में क्या बाधा है ?
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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