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________________ - [ ४१२ ] भाषा-स्वरूप वर्णन (४) चतुर्थ भंग शून्य रूप है। प्रकारान्तर से असत्य के दल भेद हैं। इनका उक्त चार भेदों में से भाव-अलत्य में समावेश होता है। दल भेद यों हैं • कोहे माणे माया, लोहे पिज्जे तहेव दोले य । हाल भए अखाइय, उवघाइयर्णिस्सिया दसमा ॥ अर्थात् [१] क्रोधनिश्रित [२] माननिश्रित [२] मायानिश्रित [४] लोभनिश्रित [५] प्रेमनिश्रित [६] द्वेष निश्रित [७] हास्यनिश्रित [८] भयनिश्रित [६] श्राख्यापिकानिश्रित और [१०] उपधाननिश्रित, यह इस असत्य भाषा के भेद हैं। . [१] शोधनिश्रित-क्रोध के वश में हुश्रा जीव, विपरीत बुद्धि ले, जो असत्य या सत्य बोलता है वह क्रोध निश्रित सत्य है। ऐसा व्यक्ति तथ्य पदार्थ का कथन भले ही करे किन्तु उसका आशय दूषित होने के कारण उसकी भाषा असत्य ही है। [२] माननिश्रित-पाभिमान से प्रेरित होकर भाषण करना माननिश्रित अस. त्य है। जैसे-'पदले हमने एसे विपुल ऐश्वर्य का अनुभव किया है कि- संसार में राजाओं को भी दुर्लभ है।' इस प्रकार कहना। [३] मायानिश्रित-दूसरों को ठगने के अभिप्राय से सत्य या असत्य भाषण करना मायानिश्रित असत्य भाषा है। यहां पर भी अभिप्राय की दुष्टता के कारण भाषा दुष्ट हो जाती है। [लोभनिश्रित लोभ के वश होकर असत्य भाषण करना । जैसे-तराजू में पासंग रख कर के भी कहना कि यह तराजू बिलकुल ठीक है। [५] प्रेसनिधित-प्रेम अर्थात राग के आधीन होकर 'मैं तुह्मारा दास हूं इत्यादि चापलूसी के वचन बोलना। ६] द्वेषनिश्रित-द्वेष से प्रेरित होकर भाषण करना द्वेषनिश्रित असत्य है। [७' हास्यनिश्रित-हंसी-दिल्लगी, क्रीडा प्रादि में असत्य भाषण करना । ८] भयनिश्रित-चोर श्रादि के भय ले असत्य बोलना । जैसे-'मैं दरिद्र हूं, . मेरे पास क्या रक्खा है ? श्रादि ।' अथवा किये हुए अपराध के दंड के भय से न्या. याधीश के समक्ष असत्य बोलना, प्रायाश्चित्त शथवा लोकनिन्दा के भय से असत्य का प्रयोग करना, यह सब भयनिश्रित असत्य है। 18] प्राण्यापिकानिथित-कथा-कहानी श्रादि में असंभव वातो का वर्णन करना । यद्यपि कथाओं, कहानियों, उपन्यालों एवं नाटकों में प्रायः कल्पित पात्र होते हैं और उनका वार्तालाप तथा चरित्र चित्रण भी कारपत होता है, तथापि जहां कथा का श्राशय किसी सत्य का निरूपण करना होता है, वास्तविकता का दिगदर्शन कराने के लिए जो उपन्यास भादि लिखे जाते हैं, वे असत्य की परिभाषा में अन्तर्गत नहीं होते। जहां प्राशय दुर्पित होता है और असंभव एवं अस्वाभाविक चातों का कथन किया जाता है वही आध्यापिका निश्रित अलत्य समझना चाहिए।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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