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________________ ग्यारहवां अध्याय [ ४१३ । [१०] किसी व्यक्ति पर मिथ्या श्रारोप लगाना उपघात निश्रित असत्य है। जैसे-'तू चोर है, पर स्त्री लम्पट है, आदि । इस प्रकार का कथन यदि मिथ्या है अर्थात् जिसे चोर कहा गया है वह वास्तव में चोर नहीं है, तब तो इस भाषण की असत्यता स्पष्ट ही है । यदि वह व्यक्ति वास्तव में चोर है और उसकी निन्दा करने के अभिप्राय ले कोई इस प्रकार बोलता है तो भी. इसे श्राशय दोष से मिथ्या ही समझना चाहिए। यदि एकान्त में, उसके दोषों का निवारण करने के लिए, विशुद्ध उद्देश्य से इस प्रकार कहा जाय तो यह असत्य में सम्मिलित नहीं है। सत्यासत्य भाषा के भी दल प्रकार हैं:-[१: उत्पन्नमिश्रिता [२] विगतमिश्रिता [३] उत्पन्नविगत मिश्रिता [४] जीवमिश्रिता [५] अजीयमिश्रिता [६] जीवाजीवमिश्रिता [७] अनन्तमिश्रिता [८) प्रत्येकमिश्रिता [६] अहामिश्रिता [१०] श्रद्दाहामिश्रिता । इनका स्वरूप इस प्रकार है: [१] उत्पन्नमिश्रिता-संख्या पूरी करने के लिए, जिसमें न उत्पन्न हुओं के साथ उत्पन्न हुए पदार्थ सम्मिलित हों वह उत्पन्न-मिश्रिता सत्यासत्य भाषा है। जैसे किली नगर में कम या अधिक बालक जन्में हो तथापि 'आज दस बालकों का जन्म हुआ है' इत्यादि कथन करना। - [२] विगतमिश्रिता-उत्पत्ति के समान मरण के संबंध में पूर्वोक्त प्रकार का कथन करना। [३] उत्पन्नविगतमिश्रिता-जन्म और मरण-दोनों के विषय में निश्चित परिमाण को उलंघन करके कथन करना-आंशिक मिथ्या परुपण करना। [४] जीवमिश्रिता-जीवों के किली समूह में बहुत से मृत हों और बहुत से जीवित हों, तथापि यह कहना कि-देखो, कितना बड़ा जीयों का समूह है।' यहां मृत शरीरों में जीवत्व का अभाव है, फिर भी उन्हें जीव शब्द से कहा गया है, यह मिथ्या अंश है और जीवितों को जीव कथन करना सत्य है, अतः यह वाक्य मिश्र भाषा में परिगणित है। [५] अजीवमिश्रिता-पूनि प्रकार से, जहां जीव और अजीव दोनों सम्मिलित हों वहां उन्हें श्रजीव के रूप में कथन करना अजीवमिश्रिता भाषा है। [६] जीवाजीवमिथिता-उसी पूर्वोक्त समूह में, 'इतने मरे हैं, इतने जीवित हैं' इस प्रकार वास्तविक परिमाण का उलंघन करके कथन करना जीवाजीवमिश्रिता भापा है। [७] अनन्तमिश्रिता-मूला आदि अनन्त कायिकों से मिभ प्रत्येक वनस्पति को देख कर कहना-यह सब अनन्त कायिक है।' [८] प्रत्येकमिश्रिता-प्रत्येक वनस्पतिकाय अनन्त चनस्पतिकाय के साथ रमी हो, उसे देख कर कहना-'यह सब प्रत्येक वनस्पति काय हैं।' 16 श्रदामिश्रिता-श्रदा का तात्पर्य यहां रात्रि, दिवस आदि व्यवहार काल
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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