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________________ प्रमाद-परिहार व्रत-उपवास श्रादि से विमुख बन जाता है और भोगोपभोग भोगने में मस्त हो जाता है। अतः श्रात्म हितैषी पुरुष को सर्व प्रथम अपने शरीर से ममत्वं हटाने का प्रयत्न करना चाहिए । शरीर संम्बन्धी ममता हटाने का सहज उपाय है, उसके वास्तविक स्वरूप का चितन्न करना । शरीर स्वभावतः इतना वीभत्स है, इतना मलीन है और इतना अशुचि रूप है कि उसका विचार करने से विरक्ति अवश्य होती है। योगीजन ' अशुचित्व भावना के चिन्तन द्वारा शारीरिक ममत्व का नाश करते हैं। वे शरीर की . उत्पत्ति, स्थिति और विनाश के कारणों का विचार करते हैं। . शरीर की उत्पत्ति रज और वीर्य रूप अशुचि पदार्थों के संसर्ग से होती है । उसकी स्थिति सप्त धातुओं पर है और अन्त में वह भी विनष्ट हुए विना नहीं रहता। शरीर को विविध प्रकार के अत्यन्त दूषित और घृणाजनक मल का थैला कहा जा सकता है। ऊपर से मढ़े हुए चमड़े के चहर को अगर दूर कर दिया जाय तो शरीर । का रूप दिखाई देने लगेगा। वह रूप कैसा वीभत्स और घृणाजनक है ! वही इसका असली रूप है। रक्त, मांस, हड़ी, मल, मूत्र आदि का यह पिंड है और इसके अति. रिक्त इसमें कोई सारभूत पदार्थ नहीं है। अनेक खिड़कियों में से भीतर का मल बाहर निकल कर मनुष्यों को भीतरी शरीर का स्वरूप दिखाता रहता है, फिर भी मोहांध मनुष्य उसे नहीं देखता। शरीर स्वयं अपावन है और संयोग से अन्य पदार्थों को भी अपावन वना डालता है। षट् रस व्यंजन शरीर में जाकर क्या बन जाते हैं ? सुगंधित आहार की शरीर में पहुँचते ही क्या दशा होती है ? इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु इस अपवित्रता के पिंड का संसर्ग होते ही स्वयं अपवित्र बन जाती है। इस अछूत, घृणाजनक शरीर के प्रति मोही जीव ममता का भाव रखता है ! उसे कष्ट न होने पाए, इस विचार ले बत, उपवास आदि मार्मिक क्रिया भी नहीं करता ! इसी शरीर पर वह धर्म को एवं आत्म. हित को न्यौछावर कर देता है ! यह मानवीय ज्ञान का दिवाला है। अज्ञान का अतिरेक है। मोह की विडम्बना है । घोर प्रमाद है ! योगीजन शरीर की उपासना करने के लिए अात्महित का परित्याग नहीं करते। वै धर्म और अध्यात्म की साधना वना कर शरीर का पालन-पोपण करते हैं। इसी उद्देश्य की पूर्ति में शरीर की सार्थकता है। अतएव शरीर सम्बन्धी ममता का त्याग करो। जैसे कमल जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में रहते हुए भी शरीर में लिप्त न होओ। शरीर सम्बन्धी ममता का परित्याग कर देने पर अन्य पदार्थों की ममता स्वतः नष्ट हो जाती है। क्योंकि संसार की समस्त नातेदारी शरीर के साथ ही है, आत्मा के साथ नहीं। जब कोई योगी शरीर के प्रति ही निस्पृह वन जाता है, शरीर को ही श्रात्मा से परे मान लेता है, तब अन्य पदार्थों में ममता का भाव रह ही नहीं सकता। इसी अभिप्राय से सरकार कहते हैं कि अन्त में सब प्रकार के स्नेह से रहित हो जानो और हे गौतम ! समय मात्र का भी प्रमाद मत करो । शरीर की ममता ही
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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