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________________ दसवाँ अध्याय [ ३९५ अन्य पदार्थों की ममता का मूल है और मूल के उखड़ जाने पर वृक्ष स्थिर नहीं रह सकता। इसलिए सर्व प्रथम शारीरिक मोह का परित्याग करना चाहिए। शरीर जड़ है में चेतन हूँ, शरीर विनश्वर है मैं अविनाशी हूँ, शरीर रूपी है मैं अरूपी हूँ, शरीर अलीन है और मैं निर्मल हूँ, इत्यादि विचार करके श्रात्माःको शरीर से पृथक् चिन्तन करना चाहिए । शारीरिक ममता के परित्याग का यह उपाय है। मूलः-चिच्चाण धणं च भारियं, पव्वइयो हि सि अणगारियं । मा वंतं पुणो वि प्राविए, समयं गोयम ! मा पमायए ॥२४॥ छायाः-त्यक्त्वा धनञ्च भायां, प्रबजितो ह्यसि अनगारतम् । ___ मा वान्तं पुनरप्यापिवेः, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २४ ॥ शब्दार्थः हे गौतम ! तू ने धन और पत्नी का परित्याग करके साधुता स्वीकार करली है, इसलिए वमन किये हुए को फिरमत पी। अपनी त्याग-भावना को निश्चल रखने में समय मात्र का प्रमाद न कर। भाष्यः-भगवान अपने शिष्य श्री इन्द्रभूति गौतम को संबोधन करके, प्रकारान्तर से समस्त त्यागियों को अपने किये हुए त्याग पर स्थिर रहने का उपदेश देते हैं। मनुष्य का मन अत्यन्त चंचल है। वायु का देग भी उसके तीन वेग के सामने मन्थर हो जाता है। सिनेमा के दृश्यों की तरह मन में एक विचार आता है और पाने के साथ ही विलीन हो जाता है । जब धर्मश्रवण, स्वाध्याय श्रादि का योग होता है तव मन में प्रशस्त विचार उदित हो पाते हैं और कुछ ही क्षणों के पश्चात् नवीन तृष्णा और मोह से परिपूर्ण विचार उन प्रशस्त विचारों का स्थान ग्रहण कर लेते हैं। ___ मन की इस चंचलता के कारण अनेक अनर्थ उपस्थित हो जाते हैं। अनेक त्यागी अपने त्याग से च्युत हो जाते हैं, अनेक योगी अपने योग से भ्रष्ट हो जाते हैं और अनेक संयमी अपने संयम से पतित हो जाते हैं । इस अभिप्राय को समक्ष रखकर भगवान् कहते हैं-गौतम ! सावधान रहो । कभी यह विस्मरण न करो कि तुमने पती का परित्याग कर दिया है अर्थात् सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया है और धन फा भी त्याग करके अकिंचन बने हो अर्थात् परिग्रह त्याग महावत धारण किया है इन त्यागे हुए विषय भोगों को फिर कभी मत ग्रहण करना । इन्हें ग्रहण करने का विचार पल भर के लिए भी हृदय-प्रदेश में उदित न होने देना। लोक में चमन (के) घृणित वस्तु समझी जाती है। वमन करके उसे कोई मनुष्य फिर भोगने का विचार भी नहीं करता। कुत्ता या कौवा श्रादि नीच प्राणी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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