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________________ दसवां अध्याय [ ३३३ ] घोर मानसिक अशांति मनुष्य को बेचैन बना डालती है । - इसी भांति असातावेदनीय कर्म का उदय होने पर तथा अपथ्य सेवन, श्राहारविहार की अनुचितता आदि कारण मिलने पर अनेक प्रकार के रोग शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं। किसी का शरीर फोड़ा-फुंसी होने से सड़ने लगता है, किसी के गले में गंडमाला हो जाती है, किसी के उदर में गांठें उत्पन्न हो जाती है । किसी को वमन और दस्त की बीमारी हो जाती है । कोई अचानक ही उत्पन्न होने वाले शूल से पीड़ित होता है । इस प्रकार अनेक रोग शरीर को निर्बल बना डालते हैं । ' शरीरं व्याधि मन्दिरम्' अर्थात् शरीर रोगों का घर है, इस कहावत के अनुसार प्रदेक रोग शरीर मैं व्याप्त हैं और किसी भी समय, कोई भी रोग भड़क कर शरीर का विनाश कर डालता है । ऐसी अवस्था में, शरीर का भरोसा न करते हुए शीघ्र से शीघ्र श्रात्मकल्याण का साधन कर लेना ही चतुरता है । इसलिए भगवान् कहते हैं - गौतम ! एक समय का भी प्रमाद न करो । 1 मूल:- वोच्छिंदं सिणेहमप्पणो, कुमुयं सारइयं व पाणियं । से सव्वसिणेहवज्जिए, समयं गोयम ! मा पमायए | २३ | छाया:-- व्युच्छिन्धि स्नेहमात्मनः कुमुदं शारदाभिव पानीयम् । तत् सर्व स्नेहवर्जितः समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २३ ॥ शब्दार्थः--हे गौतम ! जैसे शरद काल का कुमुद पानी का त्याग कर देता है उसी प्रकार तू अपने स्नेह को त्याग दे । सब प्रकार के स्नेह से रहित होकर समय मात्र का भी प्रसाद न कर । भाग्यः—जब तक अन्तःकरण में शरीर के प्रति ममत्व भाव विद्यमान रहता है तब तक विषयों का पूर्ण रूपेण त्याग नहीं किया जा सकता। इसलिए भगवान् ने यहां मुख्य रूप से शरीर के प्रति निर्मोह होने की प्रेरणा की है । आत्मा का शरीर के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है । इतना घनिष्ठ सम्बन्ध है कि अनेक अज्ञान पुरुष शरीर को ही आत्मा समझ बैठते हैं । जो विवेकी पुरुष श्रात्मा और शरीर को भिन्न समझते हैं, वे भी मोह के कारण उसके प्रति ममत्व की भाव रखते हैं । समत्य की भावना होने के कारण ही आत्मा को दुःख का अनुभव होता है । जिस वस्तु पर ममत्व होता है उसके बिगड़ने एवं विनष्ट होने से आत्मा श्रत्यन्त वेदना का अनुभव करता है । संसार में सहस्रों वस्तुएँ प्रतिक्षण विनाश को प्राप्त हो रही हैं, फिर भी उन पर ममत्व न होने से मनुष्य दुःख नहीं अनुभव करता । और जिस पर ममत्व है ऐसी क्षुद्र वस्तु के विनाश से भी वह दुःख मानता है । यह ममता का ही प्रभाव है। शरीर पर घोर ममता का भाव होने से मनुष्य ऐसा व्यवहार करता है, जिससे शरीर का पोषण होता हो, शरीर को जो अप्रिय न हो। इसीसे वह साताशील हो जाता है ।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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