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________________ . । ३६२ । प्रमाद-परिहार छायाः-अरतिगण्डं विसूचिका, अातङ्का विविधास्पृशन्ति ते । विहियते विध्वस्यति ते शरीरकं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ २२॥ शब्दार्थ:-हे गौतम ! चित्त का उद्वेग, फोड़ा-फूंसी, हैजा तथा विविध प्रकार के अचानक उत्पन्न होने वाले अन्य रोग, तेरे शरीर का स्पर्श करते हैं। शरीर क्षीण होता जाता है और अन्त में नष्ट हो जाता है । इसलिए समय मात्र का भी प्रमाद मत करो। भाष्यः-अनतर गाथा में, यह बतलाया गया था कि शरीर प्रकृति से ही अनित्य है-प्राकृति स्वयं उसे क्षीण बनाती है। इस गाथा में यह बतलाया गया है कि प्राकृतिक क्षीणता प्राने से पहले ही आगन्तुक विनों से शरीर किसी भी समय क्षीण हो सकता और नष्ट भी हो सकता है। अरति का अर्थ है सानसिक उद्धग । इसने समस्त मानसिक रोगों का ग्रहण करना चाहिए । फोड़ा-फुली, गांठ आदि गंड कहलाते हैं और वमन दस्त श्रादि होने को विसूचिका कहते है । उदर शूल आदि एकाएक उत्पन्न होने वाले रोग आतंक कहलाते है। इनसे अन्य समस्त शारीरिक रोगों का ग्रहण होता है इन विविध प्रकार के रोगों से शरीर वृद्धावस्था तक न पहुंचने पर भी अशक्त बन जाता है और धर्म की श्राराधना कठिन हो जाती है। अनेक पुरुष यह सोचते हैं कि अभी यौवन है, इस समय काम भोगों का सेवन कर लेवें । वुड़ापे में पर लोक की कमाई कर लेगे । जब शरीर सांसारिक व्यवहारके अयोग्य बन जाएगा तब धर्म की साधना हो जायगी । ऐसा विचार कर मनुष्य दिन-रात भोगोपभोग में निमग्न रहता है। भोगोपभोग के साधन जुटाने में न्यायअन्याय, उचित-अनुचित, कर्त्तव्य-श्रकर्तव्य का विवेक नहीं रखता। दूसरों से अन्याय-पूर्वक व्यवहार करके धनोपार्जन करता है । दीन-हीन जनों को सताकर उनसे अनुचित लाभ उठाता है। धन के लिए हिंसा करता है, असत्य भाषण करता है, चोरी करता है। नीच जनों की सेवा करता है। अपनी स्वाधीनता चेचकर धनिकों के इशारे पर नाचता है । धनवानों की चापलूसी करता है। उनके अवगुणों को गुण बताकर उन्हें प्रसन्न करता है । धनवान यदि कंजूस हुश्रा तो उसे मितव्ययि कहता है। उड़ाऊ हुआ तो उदार बनाकर उसे खुश करता है। कायर होतो उसे क्षमाशील कहता है। इस प्रकार तरह-तरह से अपने स्वामी को प्रसन्न करके अर्थ लाभ करना चाहता है। कोई-कोई पुरुष खेती करते हैं। कोई व्यापार करते हैं । कोई जुश्रा सरीखा निन्दनीय कर्म करते हैं। कोई किसी साधन का अवलम्बन करता है. कोई किसी उपाय को ग्रहण करता है । इस प्रकार मनुष्य अपनी निरोग अवस्था में धनोपार्जन तथा विषयभोग में इतना अधिक लीन रहता है कि उसे श्रात्मा के कल्याण की कल्पना ही नहीं पाती। किन्तु जव उपार्जित धन किसी कारण से नष्ट हो जाता है, इष्टजन का वियोग हो जाता है अथवा अन्य कोई अनिष्ट घटना घट जाती है तव चित्त एकदम क्षुब्ध हो उठता है । चित्त में नाना प्रकार की चिन्ताएँ उद्भूत हो जाती हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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