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________________ प्रमाद-परिहार न्य पदार्थों के सेवन से भी सदा बचना चाहिए, क्योंकि वे भी पूर्वोक्त दोषों का पोषण करते हैं। (२) विषय प्रमाद-स्पर्श, रस, गेंध, रूप और शब्द रूप इन्द्रियों के विषय सेवन को विषय प्रमाद कहते हैं । शास्त्रकारों ने विषयों को विष के समान भाव प्राणों का नाशक बताया है और विषादजनक कहा है, इसी कारण इन्हें विषय कहते हैं। एक-एक इन्द्रिय के विषय में प्रासक्त हाथी, मृग आदि पशु-पक्षियों को भी अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ती है तो जो पांचों इन्द्रियों के विषय में श्रासक्त होते हैं उनकी दुर्दशा का क्या पार है ? विषयों में ऐली विचित्रता है। कि ज्यों-ज्यों इनका लेवन किया जाता है त्यों-त्यों भोग की लालसा घटने के बदले बढ़ती ही जाती है । इन से कभी किसी जीव को तृप्ति नहीं मिली और न मिल ही सकती है। इसीलिए कहा है-'भोगा न भुक्ता वयमेव मुक्ताः' अर्थात् भोगी जीव भोगों को नहीं भोगता श्रापितु भोग ही उसे भोगते हैं। विषय भोग अतृप्तिकारक हैं, यही नहीं, वे भोगाभिलाषा के बईक होने से जीव के चित्त में स्थायी व्याकुलता उत्पन्न करते हैं । उस व्याकुलता के वशीभूत होकर प्राणी अधिकाधिक भोग-सामग्री के संचय का प्रयत्न करता है । और उसके लिए उसे जो घोर विडंबनाएं उठानी पड़ती है वे प्रत्यक्ष हैं। इस प्रकार इन्द्रियों के विषय किसी भी अवस्था में ग्राह्य नहीं हैं । जो पुरुष उनसे विमुख हो, जाते हैं, उनकी लालसा की जड़ को ही अपने मन रूपी मही से उखाड़ फेंकते हैं, वही निराकुल होकर लच्चे सुन का अनुभव करते हैं, वही तृप्ति का अपूर्व प्रास्वादन करते हैं, वही इस लोक में सुखी हैं, वही परलोक में परमानन्द के पात्र बनते हैं। अतएव विषय रूप प्रमाद का परित्याग करने में ही सच्चा श्रेय है। (३) कषाय प्रमाद-क्रोद्ध, मान, माया और लोभ रूप कषायों के वशीभत होकर विवेक को भूल जाना, कषाय प्रमाद है । कषायों का स्वरूप कषाय-अध्ययन में निरूपण किया जायगा। निदा प्रमाद-सोने की वह क्रिया, जिसमें चेतना अव्यक्त हो जाती है. निदा कहलाती है। शरीर की रक्षा के लिए जितनी निद्रा अनिवार्य है, उसका परिहार न किया जासके तो भी अनावश्यक निद्रा का अवश्य त्याग करना चाहिए । निद्राशील पुरुष न तो ज्ञान-ध्यान का विशेष सेवन कर सकता है और न शरीर को ही स्वस्थ रख सकता है। अतएव आवश्यकता से अधिक सोना तथा असमय में सोना विवेक जनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है। . (५) राग-देश के वश होकर स्त्री श्रादि के संबंध में निरर्थक वात करना विकथा प्रमाद है। विकथा प्रमाद के चार भेद हैं-(१) स्त्री कथा .२) भक्त कथा (३) देश कथा (४) राज कथा। इन चारों कथाओं के चार-चार भेद हैं । स्त्री कथा के चार भेद इस प्रकार हैं-(१) स्त्री जाति कथा (२) स्त्री कुल कथा (३) स्त्री रूप कथा ४) स्त्री वेप कथा ।.
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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