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________________ - - दसवां अध्याय योग कर लेना चाहिए । मनुष्य-शरीर ही मुक्ति का निमित्त है। इस शरीर के विना मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। इसी कारण सम्यग्दृष्टि देव भी मानवभव पाने की लालसा करते हैं । अत्यन्त प्रबल पुण्य के उदय से इस भवन की प्राप्ति होती है । बहुत-सा पुण्य रूपी मूल्य चुका कर इल देह को खरीदा जाता है। मनुष्यभव में ही विशिष्ट विवेक प्राप्त होता है। इसी में बुद्धि का प्रकर्ष होता है। इसी शरीर का निमित्त पाकर मुनिजन षष्ठ श्रादि उच्च गुणस्थान प्राप्त करते हैं। ऐसे अमूल्य जीवन को प्राप्त करके यदि विशेष आत्मकल्याण की साधना नहीं की तो यह भव प्राप्त ही निरर्थक हो गया। इतना ही नहीं, गांठ की वह पूंजी भी गई जिससे इसकी प्राप्ति हुई थी। साथ ही विषयभोग भोग कर आगे के लिए भारी ऋणी भी वन गया, जिसे चुकाने में ही न जाने कितने भव व्यतीत करने पड़ेगे ? एक बार मानव-जीवन वृथा व्यतीत कर देने के बाद दूसरी बार इसकी प्राप्ति कब होगी, यह नहीं कहा जा सकता। संसार में जीव-जन्तुओं की, कीट-पतंगों की कितनी जातियां हैं ! उन सब में जाने से, तथा नरक-निगोद आदि के भयंकर जीवन से वर्च कर दुर्लभ मनुष्य जीवन पाना बड़ा ही कठिन है। इसलिए भगवान् कहते हैं कि हे गौतम ! तू एक समय का भी प्रमाद न कर अर्थात् प्रमाद की अवस्था में एक भी क्षण व्यतीत न कर । सदा अप्रमत्त होकर निचर । सदैव संयम की ओर दृष्टि रख । निरन्तर अात्मा की ओर उन्मुख बना रह। जिस क्रिया से जीव बेभान हो जाता है, हिताहित के विवेक से विकल वन जाता है, जिसके वश होकर जीव सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र रूप मोक्ष मार्ग के प्रति उद्यम करने में शिथिलता करता है, उसे प्रमाद कहते हैं। प्रमाद के पांच प्रकार हैं-[१] मद्य २] विषय [३] कपाय [४] निद्रा और [५] विकथा । कहा भी है मजं विषयकसाया, निदा विगहाय पंचमी भणिया। . एए पंच पमाया, जीवं पाति संलोर ॥ अर्थात् मद्य, विषय, कपाय, निद्रा और विकथा, ये पांच प्रमाद जीव को संसार में गिराते हैं। (१) मद्यप्रमाद-मदिरा आदि नशा फरने वाले पदार्थों का सेवन करना मद्य प्रमाद कहलाता है । इससे शुभ परिणामों का नाश और अशुभ परिणामों की उत्पत्ति होती है । मदिरा में असंख्य जीवों की उत्पत्ति होने से मादिरापान करने वाला घोर हिंसा का भागी होता है। मदिरा के दोष इस लोक में प्रत्यक्ष देखे जाते हैं और शास्त्रों से परलोक संबंधी अनर्थों का भी पता चलता है। इस से लज्जा, लक्ष्मी विवेक बुद्धि स्मरण शक्ति, शारीरिक बल श्रादि का विनाश होता है। चेहरे की तेजस्विता का मदिरा हरण कर लेती है और अनेक प्रकार के पापी में प्रवृत करती है। इसलिए सदिरापान विवेकी जनों द्वारा सर्वथा त्याज्य है। इसी प्रकार नशा करने वाले अन्या
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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