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________________ * ॐ नमः सिद्धेभ्य * . निपक्चन्न । । दसवां अध्याय ॥ . प्रमाद-परिहार श्री भगवान्-उवाचमूलः-दुमपत्तए पंडुरए जहा, निवडइ राइगणाण अच्चइ । एवं मणुप्राण जीवियं, समयं गोयम ! मा पमायए॥१॥ छायाः-दुमपत्रकं पाण्डुरकं यथा, नियतति रात्रिगणानामत्यये ।। एवं मनुजानां जीवितं, समयं गौतम ! मा प्रमादीः ॥ १॥ . शब्दार्थः-गौतम ! जैसे रात्रि-दिन के समूह व्यतीत हो जाने पर पका हुआ पेड़. का पत्ता झड़ जाता है, इसी प्रकार मनुष्यों का जीवन है । अतः हे गौतम ! एक समय मात्र का भी प्रमाद न कर। भाष्यः-पिछले अध्याय में साधु के श्राचार का प्रतिपादन किया गया है। उस श्राचार का प्रति पालन सम्यक् प्रकार से तभी हो सकता है जव मुनि प्रतिपल सावधान रहे-सदा जागरूक रह कर अपनी श्रान्तरिक हलचलों का सूक्ष्म दृष्टि से अवलोकन करता रहे और उन पर अपना निरन्तर नियन्त्रण स्थापित रक्खे। ऐसा न किया जाय तो सन दुर्व्यापार में लीन हो जाता है और संयम दूषित हो जाता है। श्रतएव यहां सूत्रकार ने प्रमाद परिहार का उपदेश दिया है। . . .. जैसे कुछ दिन व्यतीत होने के पश्चात् पेड़ का पका हुआ पत्ता पृथ्वी पर पड़ जाता है-अपने स्थान से च्युत हो जाता है, उसी प्रकार मनुष्यों का जीवन परिमित हैं.और कुछ समय में, श्रायु पक जाने पर, वह समाप्त हो जाता है। . .. . यह कथन नैसर्गिक मृत्यु की अपेक्षा समझना चाहिए । यदि किसी की मामय न हो तो भी उसका जीवन स्थायी नहीं रह सकता, आयु कर्म के समाप्त होने पर उसका विनाश अवश्यम्भावी है। श्रायु की स्वाभाविक समाप्ति के पूर्व बीवन का विशेष कारणों से अन्त हो जाता है, जैसे वृक्ष का पत्ता पकने से पूर्व ही तोड़ा जाकर नीचे गिरता है। .. ___ इस कथन से यह घोषित किया गया है कि जीवन की स्थिति का विश्वास नहीं किया जा सकता। कोन जाने कब इस जीवन की इतिश्री हो जायगी ! श्रतएव तक यह स्थिर है तब तक इसका श्रात्मकल्याण के लिए अधिक से अधिक उप
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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