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________________ श्राठवां अध्याय [३०१ ] ब्रह्मचर्य नहीं हो जाता, यह अभिप्राय प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने 'भय' शब्द को . स्थान दिया है । भय का प्राबल्य प्रकट करने के उद्देश्य से एक ही गाथा में दो बार 'भय' शब्द का प्रयोग किया गया है। मूलः-जहा विरालावसहस्स मूले, न भूसगाणं वसही पसस्था । एमेव इत्थीनिलयस्य मज्झे, न बंभयारिस्स खमो निवासो ॥ ५ ॥ छायाः-यथा बिडालावसथस्य मूले, न मूषकाणां वसतिः प्रशस्ता। एवमेव स्त्रीनिलयस्य मध्ये, न ब्रह्मचारिणः क्षमो निवासः ॥ ५ ॥ शब्दार्थः-जैसे बिलावों की बस्ती के सन्निकट, चूहों की बस्ती चूहों के लिए कल्याणकारी नहीं है, उसी प्रकार स्त्रियों के निवास स्थान के बीच ब्रह्मचारी पुरुष का निवास फरना भी कल्याणकर नहीं है। भाष्यः-यहां पर ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए विपत्ति रूप निवास स्थान के विषय में कथन किया गया है। विलावों के बीच रहने वाले चूहे कितने दिन सकुशल जीवित रह सकते हैं ? उनका जीवन किसी भी क्षण नष्ट हो सकता है। इसी प्रकार स्त्रियों के निवास स्थान के बीच अगर ब्रह्मचारी पुरुष निवास करे तो उसका ब्रह्मचर्य कब तक अखंडित रह सकेगा? वह किसी भी क्षण खाडत हो सकता है। अनादिकालीन विषय-वासना से वासित मन को इस वासना से सर्वथा मुक्त बनाने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की भावश्यकता होती है। जो पशु दो-चार बार हरित धान्य से परिपूर्ण खेत में चर लेता है, उसे यूथ में रहकर साधारण घास से संतोष नहीं होता । वह गोपालक की आंख बचाकर, उसी खेत में दौड़ जाता है और वहीं जाकर धान्य भक्षण करता है । दोचार वार धान्य-भक्षण करने से ही जब पशु में यह वासना घर बना लेती है, तब अनादिकाल से मैथुन-वासना से वासित मन को, उस वासना से मुक्त करने में कितना प्रयत्न, कितनी शक्ति, कितनी जागरुकता और कितनी तल्लीनता की आवश्यकता है, यह स्वयं समझलेना चाहिए । विषयवासना का दास, मन अवसर पाते ही वासना के सागर में पुरुष को डूवादेता है। जैसे उजाड़ करने वाली गाय बध-बंधन आदि अनेक क्लेशों का पात्र बनती है, उसी प्रकार मन को अनेक क्लेश सहन करने पड़ते हैं। गाय के लाथ, गाय के खामी को भी दंड भुगतना पड़ता है, इसी प्रकार मन के साथ, आत्मा को भी इस लोक में तथा परलोक में अत्यन्त घोर यातनाएँ सहनी पड़ती हैं । जैसे उजाड़ करने वाली गाय के गले में गुर (मोटी-सी लकड़ी) डाल दिया जाता है, जिससे वह शीघ्र इधर-उधर नहीं भाग सकती, इसी प्रकार मन . को रोकने के लिए तप रूपी ठेगुर डालना चाहिए । इस तरह विविध प्रयत्नों द्वारा
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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