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________________ [ ३०० ] · ब्रह्मचर्य-निरूपण कर विचरण करने लगती हैं और युग-युग की साधना का सर्वनाश कर डालती हैं। अतएव सतत् सावधान रह कर इन्द्रियों पर अंकुश रखना चाहिए और साधना से च्युत करने वाले निमित्तों से प्रतिक्षण वचते रहना चाहिए। मूलः-जहा कुक्कुडपोप्रस्स, निच्चं कुललो भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थविग्गहलो भयं ॥ ४ ॥ छायाः यथा कुक्कुटपोतस्य, नित्यं कुल लतो भयम् । एवं खलु ब्रह्मचारिणः, स्त्री विग्रहतो भयम् ॥ ४ ॥ शब्दार्थः-जैसे मुर्गे के बच्चे को बिल्ली से सदैव भय बना रहता है, इसी प्रकार : निस्सन्देह ब्रह्मचारी को स्त्री के शरीर से भय रहता है। भाष्यः- ब्रह्मचर्य के पथ में आने वाली बाधाओं का विशेष रूप से परिचय देने के अर्थ सूत्रकार ने यह कथन किया है। जैसे मुर्गे का बच्चा अगर सावधानी से न रहे या न रक्खा जाय तो बिलाव किसी भी क्षण उसके प्राण हरण कर सकता है, इसी प्रकार स्त्री के शरीर से ब्रह्मचारी पुरुष के ब्रह्मचर्य को सदा खतरा रहता है। अगर ब्रह्मचारी सदैव सावधान न रहे तो किसी भी समय उसके ब्रह्मचर्य का अन्त हो सकता है । प्रतिक्षण ब्रह्मचारी को सावधान रहना चाहिए, यह बताने के लिए सूत्रकार ने निच्चं (नित्य ) शब्द का प्रयोग किया है। कोई-कोई वाधा ऐसी होती है जिससे चिरकाल में किसी गुण का विनाश होता है, पर ब्रह्मचर्य सम्बन्धी बाधा क्षण भर में ही ब्रह्मचर्य का विनाश कर डालती है। पुरुष की प्रधानता से इस प्रकरण में ब्रह्मचर्य का कथन किया गया है, इसी कारण स्त्री कथा, स्त्री.शरीर श्रादि को ब्रह्मचर्य का बाधक कहा है। स्त्रियों के लिए इससे विपरीत यथायोग्य समझ लेना चाहिए । जैसे ब्रह्मचारी पुरुष को स्त्री कथा .आदि का त्याग करना आवश्यक है, उसी प्रकार ब्रह्मचारिणी स्त्री को पुरुष कथा अर्थात् पुरुषों के सौन्दर्य आदि के बखान का परित्याग करना चाहिए । ब्रह्मचारिणी को पुरुप शरीर से सदैव खतरा रहता है।' सूत्रकार ने बिलाव से कुक्कुट को भय रहता है ऐसा न कहकर कुक्कुट के बच्चे को भय रहता है, ऐसा कहा है। इसका तात्पर्य यह है कि बच्चे में प्रौढ़ता का अभाव होता है और वह सहज ही विलाव का श्राहार बन सकता है, उसमें अपने वचाव का सामर्थ्य नहीं होता । इसी प्रकार स्त्री के सौन्दर्य विशिष्ट शरीर को देखने से ब्रह्मचर्य की साधना में लगा हुआ साधक पुरुष भी ब्रह्मचर्य की रक्षा करने में सामर्थहीन हो जाता है, क्योंकि वह साधना में प्रयत्नशील है-साधना को सम्पन्न नहीं कर पाया है। ... स्त्री शरीर के दर्शन से ब्रह्मचर्य-विनाश का भय रहता है, निश्चित रूप से
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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