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________________ सातवां अध्याय [ २६५ ] न्यून कोटि का होता है जब कि साधु का त्याग और आत्मविकास उच्चश्रेणी पर पहुंच जाता है । यद्यपि श्रावक और साधु दोनों ही मुमुक्षु होते हैं । दोनों ही प्रात्म-शुद्धि के पथ के पथिक होते हैं । दोनों का उद्देश्य मुक्तिलाम करना है। दोनों पाप ले बचने का . प्रयत्न करते रहते हैं। दोनों संयम की साधना करते हैं। दोनों कर्मों और कषायों से । पिण्ड छूड़ाना चाहते हैं। फिर भी दोनों की कक्षा में अन्तर. है । श्रावक अनन्तानु बंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय का विनाश कर पाता है, पर साधु प्रत्याख्यानाचरण कषाय को नष्ट कर चुकता है। दोनों के संयम में लाधना में और त्याग में पर्याप्त अन्तर है। इसी कारण चार तीर्थों में श्रावक को स्थान तो मिला है पर उसमें साधु का नाम सर्वप्रथम पाता है । इसी अभिप्राय से यहां समस्त गृहस्थों की अपेक्षा भिक्षु-साधु को श्रेष्ठ कहा गया है। किन्तु लोक में देखा जाता है कि अनेक अयोग्य पुरुष साधु के विविध प्रकार के कल्पित वेष धारण करके, गौरव की आकांक्षा करते हैं। उनमें साधु-जीवन की • पवित्रता नहीं होती। साधु पद के योग्य त्याग, तप, संयम न होने पर भी वे साधु कहलाते हैं। उन्हें सचित्त-अचित्त का विवेक नहीं होता । कन्दमूल आदि अनन्त काय का निस्संकोच होकर भक्षण करते हैं। रात्रि-भोजन करते हैं, बिना छना जल पीते हैं। ऐसे-ऐसे कार्य करने के कारण वे स जीवों की हिंसा से भी निवृत्त नहीं होते हैं । अतएव ऐसे भिक्षुकों की अपेक्षा यतना पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला, निष्प्रयोजन बस-स्थावर जीवों की हिंसा से विरत, और अनन्त काय आदि के भक्षण का त्यागी गृहस्थ संयम की दृष्टि से अधिक श्रेष्ठ है। जिन वचनों से सर्वथा अपरिचित, तत्वार्थ-श्रद्धान से हीन, हिंसा में धर्म मानने वाले और निरंकुश प्रवृत्ति करने वाले, इन लोगों को भी कोई-कोई श्रावक 'यह हमसे तो श्रेष्ठ ही है ' ऐसा समझकर धर्म-बुद्धि ले वन्दना आदि व्यवहार करते हैं। उन्हें सावधान करने के लिए शास्त्रकार का यह कथन है। ___ गाथा के पूर्वार्ध में 'भिक्ख' पद का प्रयोग किया गया हैं। और उत्तरार्ध में 'साहु' शब्द का । यह शब्द-भेद ऊपर से विशिष्ट प्रतीत न होने पर भी महत्वपूर्ण रहस्य प्रकट करता है। जिन भिक्षुओं से गृहस्थ भी श्रेष्ट हैं, वे सिर्फ 'भिक्षु' हैंभिक्षा मांग कर आजीविका निर्वाह करने वाले हैं, यह सूचित करने के लिए वहां 'भिक्खूहि' कहा गया है । ' साधु ' अर्थात् शास्त्रप्रतिपादित संयम-साधना में सतत उद्यत रहने वाले महापुरुषों से गृहस्थ श्रेष्ठ नहीं है । गृहस्थों से 'साधु' का (भिक्षु का नहीं ) पद सदैव ऊँचा होता है । यह बताने के लिए गाथा के उत्तरार्ध में 'साहू ' पद का प्रयोग किया गया है। कहा भी है भयाशास्लेह लोभाच, कुदेवागमलिङ्गिनाम् । प्रणायं विनयं चैव, न कुर्युः शुद्धदृष्टयः ॥ .... अर्थात् सम्यग्दृष्टि पुरुष भयसे, आशा से, स्नेह से और लोभ से कुदेवों को,
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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