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________________ - [ २८६ ] धर्म-निरूपण्ड कुशास्त्रों को तथा कुलिंगी साधुओं को न प्रणाम करे और न उनका विनय ही करे। . इस प्रकार व्यवहार करने वाला सस्यग्दृष्टि अपने धर्म के गौरव की रक्षा . करता है, मिथ्या-पाचार का प्रचार एवं अनुमोदन नहीं होने देता और अपने स्वीकृत मार्ग पर दृढ़ रहता है । इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह अन्य देव आदि का तिरस्कार करता है। उन पर सम्यग्दृष्टि की मध्यस्थ भावना रहती है। मूलः-चीराजिणं नगिणिनं, जडी संघाडि मुडिणं । एयाणि वि न ताइंति, दुस्सीलं परियागयं ॥ १३॥ छायाः-चीराजिनं नग्नत्वं, जटित्वं संघाटित्व मुण्डित्वम् । • एतान्यपि न ब्रायन्ते, दुश्शीलं पर्यायगतम् ॥ १३ ॥ शब्दार्थः-दुराचार का सेवन करने वाला पुरुष चाहे केवल वल्कल तथा चर्म के वस्त्र पहनने वाला, नग्न रहने वाला, जटा रखने वाला, चीथड़े सांध-सांध कर पहनने वाला, सिर मुंडाने वाला या लोच करने वाला हो, वह दीक्षा धारण करके भी रक्षा . नहीं कर सकता। भाष्यः-जिनमत में बाह्य वेष और वाह्य श्राचार का कितना मूल्य है,यह बात इस गाथा ले स्पष्ट हो जाती है। कोई पुरुष छाल के वस्त्र धारण करके, चमड़े से देह ढंक कर, अथवा सर्वथा नग्न रहकर, जटा बढ़ाकर, चीथड़े बटोर कर उनसे शरीर ढंक कर या मस्तक का मुंडन कराकर, भले ही तपस्वी कहलाए और भले ही काय को क्लेश पहुंचा कर कृश कर डाले, और गृह का त्याग करके अरण्य-वास करने लगे, किन्तु वह जगत् के जन्म . जरा-मरण आदि से न अपनी रक्षा कर सकता है और न अपने अनुयायियों की रक्षा कर सकता है। सदाचार ही दुःखों ले रक्षा करने वाला है। सदाचार का सेवन करने वाला । पुरुष दुःनों से अपने को बचा सकता है और अपने भक्तों की भी रक्षा कर सकता है । जो अपनी रक्षा में समर्थ होगा वही दूसरों की रक्षा कर सकेगा। जो स्वयं कुमार्ग पर चलता है वह दूसरों को सन्मार्ग पर नहीं चला सकता। जो स्वयं अज्ञान है, वह अपने शिष्यों को सज्ञान कैसे दे सकता है ? जो लदाचार से रहित है और इस कारण जो अपना त्राण श्राप नहीं कर सकता वह दूसरों को सदाचार-परायण वना कर उनकी रक्षा कर सकेगा, ऐसी आशा करना वृथा है । अतएव जो अपनी रक्षा और पर की रक्षा करना चाहते हो उन्हें सर्वप्रथम प्राचार का यथार्थ स्वरूप समझ । कर उसका पालन करना चाहिए । कहा भी है- . ... श्राचार प्रथमो धर्मः। . अर्थात्:-श्राचार-सदाचार-पहला धर्म है। . . . 'प्राचारः प्रथमो धर्मः' इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि प्राचार धर्म है और
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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