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________________ [ २८४ ] ... धर्म-निरूपण . ___इसका तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि निष्काम बुद्धि से किये जाने वाले त्याग का फल प्राप्त नहीं होता है । वल्कि इसी प्रकार का त्याग वास्तविक और परिपूर्ण फल प्रदान करता है। केवल फल प्राप्ति की आशा अन्तःकरण में उद्भूत नहीं होनी चाहिए । फल की प्राशा हृदय में चुभे हुए शल्य की भांति सदा खटकती रहती है । वह विकलता उत्पन्न करती है। उससे अन्तरंग की समाधि स्वाहा हो जाती है। विशेष प्रकार की तृष्णा से अभिभूत होकर प्राणी शांति से वंचित हो जाता है। इसीलिए सूत्रकार कहते हैं कि संसार में दाता तो बहुत हैं पर निष्काम भावना वाला दाता दुर्लभ है। . . . संसार में सच्चा दाता ही दुर्लभ नहीं है किन्तु सच्चा अदाता-गृहीता-भी दुर्लभ है । कितने ऐसे महापुरुष हैं जो दाता का दान, निष्काम भावनापूर्वक जीवननिर्वाह करने के लिए ग्रहण करते हैं ? कठोर साधना करते हुए, नाना प्रकार के उपलगों और परीषहों की यातना भोगते हुए भी जिनके हृदय में स्वर्ग के सुखों की अभिलाषा का उदय नहीं होता, जो चक्रवर्ती के महान् और विपुल वैभव को विचार भी नहीं करते, उन धन्य पुरुपों की संख्या संसार में अधिक नहीं हो सकती । इसी कारण सूत्रकार ने कहा है कि मुधाजीवी भी दुर्लभ है। जो सांसारिक भोगोपभोगों की कामना से रहित होता है, जो दाता के सामने दीनता प्रकट नहीं करता, दीनता का भाव जिसके हृदय में उत्पन्न नहीं होता, जो. बदले में दाता की कोई सेवा-चाकरी नहीं करता, शुद्ध धर्म-भावना से प्रेरित होकर जो जीवन-निर्वाह करता है, वह मुधाजीवी पुरुष कहलाता है । वास्तव में मुधाजीवी और मुधादाता-दोनों ही संसार की शोभा हैं। दोनों ही सद्गति प्राप्त करते हैं। मूलः-संति एगेहि भिक्खूहि, गारत्था संजमुत्तरा। .. गारत्येहिं य सव्वेहिं, साहवो संजमुत्तरा ॥ १२ ॥... ... छाया:-सन्त्येकेभ्यो भिक्षुभ्यः, गृहस्थाः संयमोत्तराः। ' आगारंस्थेभ्यः सर्वेभ्यः, सांधवः संयमोत्तराः ॥१२॥ शब्दार्थः-किसी-किसी शिथिलाचारी भिनु से गृहस्थ संयम में अधिक श्रेष्ठ होते हैं। और सब गृहस्थों से, साधु संयम में श्रेष्ठ हैं। .. .. भाष्यः-सूत्रकार ने यहां गृहस्थ-श्रावक और साधु की तुलना करते हुए दोनों की श्रेष्ठता-अश्रेष्ठता का दिग्दर्शन कराया है। इस अध्ययन के प्रारंभ में श्रावक और साधु के प्राचार का कुछ परिचय दिया गया है। उससे विदित होगा.कि.साधु महाव्रतधारी होता है। और श्रावक अांशिक व्रत अर्थात् अणुव्रतों का ही पालन करता है। साधु संसार संबंधी समस्त व्यापारों का त्याग करदेता है, श्रावक संसार में रहता हुआ, संसार संबंधी श्रारंभ .. ... परिग्रह का सेवन करता है । इस प्रकार श्रावक का त्याग और तज्जन्य आत्मविकास
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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