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________________ - - - छठा अध्याय [ २२६ } किस प्रकार अपने वास्तविक स्वरूप को त्यागकर चक्रवर्ती से चाकर, राजा से रंक उत्कृष्ट से निकृष्ट बन रहा है. ? इत्यादि विचार करना भी परमार्थ संस्तर कहलाता है। यह सम्यक्त्व-श्रद्धान का प्रथम कारण है। ... (२) सुदृष्टपरमार्थ लेवा-जिन महापुरुषों ने परमार्थ को सम्यक् प्रकार से जान लिया, देख लिया या अनुभव किया है उनकी सेवना अर्थात् सेवा करने सेपरमार्थ का परिचय होता है । यहां 'सुज्ञान ' न कह कर सूत्रकार ने सुदृष्ट कहा है, उससे यह भाव निकलता है कि जिन्हों ने परमार्थ का शास्त्र के आधार से जान ही नहीं प्राप्त किया है, वरन् इ.नं. प्राप्त करके उसे चिन्तन-मनन, ध्यान आदि उपायों से आत्मा में रमा लिया है, आत्मसात् कर लिया है, अनूभूति की कोटि में पहुंचा दिया है, ऐसे अनुभवशाली महा-पुरुषों की सेवा-शुभपा से लम्यक्त्व रूप अद्धान होता है। पहले व्याख्या-प्रज्ञप्ति सूत्र के प्रमाण से यह बतलाया जा चुका है कि सत्संगति का फल सिद्धान्त का भ्रवण है और श्रवण का फल जान है। (३) व्यापन-वर्जना-जैसे दो मल्लों में जब कुश्ती होती है तब कभी पहला. दूसरे को नीचे गिराता है, कभी मौका पाकर दूसरा पहले को दे मारता है । अथवा दो सेनाओं में जब युद्ध होता है तो कभी एक सेना आगे बढ़ती और पीछे हटती है और कभी दंसरी लेना पीछे हटती और आगे बढ़ती है। इसी प्रकार प्रात्मा में और कर्मों में अनादिकाल से संग्राम चल रहा है। यह संग्राम निरन्तर-अ-स्थगित रूपमें जारी रहता है । कभी प्रबल होकर भात्मा कर्मों को पीछे हटाती है और कमी कर्म सबल होकर यात्मा को पछाड़ देते हैं। जिस आत्मा ने एक बार शक्ति-सम्पादन कर के कर्म-शत्रुओं के चल को भेद करके सम्यस्त्व प्राप्त किया, वही श्रात्मा कभी कर्म शटो द्वारा फिर पराजित हो जाता है और उसके द्वारा पाया हुश्रा सम्यस्त्व रूपी मुकुट उससे छिन जाता हैं। इस प्रकार एकवार सम्परत्व प्राप्त कर फिर मिथ्याष्ट्रि वना हुश्रा व्यक्ति व्यायन कहलाता है। उसके संसर्ग से सम्यग्दृष्टि के सम्यक्त्व में मलीनता पाने की तथा सम्यक्त्व के नाश होने की संभावना रहती है। श्रतएर सम्यक्त्व की रक्षा चाहने वालों को ऐसे व्यापन्न व्यशि से दूर ही रहना चाहिए ! . () कुदर्शन-वर्जना-मिथ्या श्रद्धान करने वाले को कुदर्शन कहते हैं । अथवा एकान्तवाद की स्थापना करने वाला, असर्वज्ञ पुरुप द्वारा प्ररूपित, पू पर विरोध से युक्त प्रत्यक्ष-अनुमान शादि प्रमाणों से बाधित, अहितकारी एवं मुशि में प्रति. बन्धक, शसत्य रूप सिद्धान्तों का निरूपण करने वाला शास्त्र कुदर्शन कहलाता है। अथवा कुत्सित अर्थात् वस्तुस्वरूप को यथार्थ रूप से प्रकट न करने वाला जिसका दर्शन भर्थात् सिद्धान्त हो उस एकान्तवादी शास्त्रप्रणेता को-जिसे अन्य लोग देव के रूप में स्वीकार करते है-कुदर्शन कहते हैं । इस प्रकार कुंदन' शब्द ले मिथ्या गुरु, मिथ्या शारन और मिथ्या देव का नहरण होता है । सम्यग्दृष्टि पुरुष को इनकी संगति का परित्याग करना चाहिए। जिनमें साधुता के शालो लक्षण नहीं पाये जाते, फिरभी जो भांति-भांति का
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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