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________________ - - [ २२८ ] सम्यक्त्व-निरूपण दृष्टियों की संगति का त्याग करना, यहीं सम्यक्त्व का श्रद्धान है। ... भाष्यः-सस्यमत्व का सामान्य स्वरूप बताने के पश्चात् सूत्रकार ने यहां यह बताया है कि सम्यकत्व संबंधी श्रद्धान की स्थिरता और सुरक्षा किस प्रकार हो सकती है। सम्यक्त्व की उत्पत्ति हो जाने पर भी उसकी स्थिरता का उपाय न किया जाय तो वह विनष्ट हो सकता है अतएव सम्यग्दृष्टि जीवों को अत्यन्त कठिनता से प्राफा हुए अनमोल खजाने की तरह, चिन्तामणी की तरह, पारल पाषाण की तरह और अपने प्रिय प्राणों की तरह सम्यकत्व की रक्षा करनी चाहिए। यहां सम्यक्त्व की रक्षा के चार साधन बताये गये हैं। (१) परमार्थसंस्तव-परम का अर्थ श्रेष्ठ, कल्याणकारी या उत्तम होता है। ऐसे परम अर्थ का अर्थात् मोक्ष का सदा चिन्तन करना । अथवा परमार्थ का अर्थ है श्रात्मा, क्यों कि मोक्ष प्रात्मा की ही अवस्था-विशेष है। इस प्रकार आत्मा-तत्व का चिन्तन करना, परमार्थ-संस्तव है। अथवा मोक्ष प्राप्ति में जो पदार्थ उपयोगी होते हैं, वे परमार्थ कहलाते हैं और उनका परिचय पाना, उनके स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना और चिन्तन करना भी परमार्थसंस्तव है । अथवा, संसार की नाश-शील, अधःपतन की कारण भूत लक्ष्मी की अपेक्षा पर अर्थात् उत्कृष्ट जो या अर्थात् लक्ष्मी-अनन्त जान दर्शन, सुख आदि रूपभाव लक्ष्मी है अर्थ अर्थात् प्रयोजन जिलका, ऐसा संस्तव करना। तात्पर्य यह है कि प्राध्यात्मिक विभूति प्रदान करने वाला संस्तव परमार्थ संस्तव कहलाता है। . परमार्थ संस्तव-पद से विभिन्न व्युत्पत्तियां करके अनेक आशय निकाले जा सकते हैं। ऊपर जो अर्थ दिये गये हैं वे सभी प्रासंगिक हैं और सभी से सम्यक्त्व की रक्षा होती है । मोक्ष की चिन्ता करने से सम्यक्त्व दृढ़ होता है। श्रात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से भी सम्यक्त्व में प्रगाढ़ता पाती है । मोक्ष प्राप्ति में उपयोगी अर्थोंका अर्थात् नवं तत्वों का चिन्तन करने से सम्यक्त्व की स्थिरता होती है। मैं कौन हूं? मेरा वास्तविक-स्वभाविक स्वरूप क्या है ? किस कारण से में जन्म-जरा-मरण की वेदनाएँ भोग रहा हूं? इन सब वेदनाओं के चंगुल से छुटकारा पाने की उपाय क्या है ? कौन सी शक्ति है जिसने मुझे अपने स्वाभाविक गुणों से च्युत कर दिया है ? इत्यादि प्रश्नों का सुक्ष्म समाधान पाने के लिए जीव, अजीव, श्राश्रव, संवर श्रादि सभी तत्वों के ज्ञान की आवश्यकता होती है। यह ज्ञान ही श्रात्म-कल्याण में उपयोगी है। श्रतएव इनका निरन्तर चिन्तन-मनन करने से सम्यवत्व प्रगाढ़ बनता है, इसी प्रकार मुक्ति रूपी लक्ष्मी प्रदान करने वाला चिन्तन करना भी सम्यक्त्व की स्थिरता का कारण है। इस चिन्तन में संसार की यथार्थ दुःस्त्रमयी दशा का चिन्तन करना, शरीर की अशुचिता, अस्थिरता, इन्द्रियों का श्रात्मा पर आधिपत्य क्यों, किस प्रकार और क्या फल देने वाला है, अादि विचार करना, मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और मध्यस्थ भावना का बारम्बार चिन्तन करना, वारह भावनाओं की अनुप्रेक्षा करना, श्रादि सम्मिलित है। कमों के वशीभूत होकर जगत् के प्राणी
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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