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________________ सम्यक्त्व-निरूपण भेष धारण करके अपने आपको साधु-संन्यासी, जोगी, आदि कहते हैं वे मिथ्यागुरु हैं। उन्हें जीव-अजीव के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता अतएव वे षटुकाय की विराधना करते हैं, असत्य भाषण करते हैं, चोरी करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते, धन उपार्जन करते हैं, भक्ष्याभक्ष्य के विवेक से विहीन हैं, रात्रि में भोजन करते हैं, अपने निमित्त स्वयं बनाते और दूसरों से वनवाते हैं, सचित वनस्पति आदि का भक्षण करते हैं, स्नान करके असंख्य जीवों की विराधना करते हैं, मदिरा, मांस आदि पापमय पदार्थों का सेवन करते हैं, गांजा, सुलका, बीड़ी, चिलम आदि का दम लगाते हैं, फूलमाला श्रादि धारण करते हैं, फिर भी अपना गुरुत्व प्रकट करने के लिए गृहस्थों से वेष की विलक्षणता जताते हैं । यह सब कुगुरु या मिथ्यागुरु कढ़लाते हैं । ये स्वयं कुपथगामी हैं, कुपथप्रदर्शक हैं और कुपथ में लेजाने वाले हैं। संसार रूप समुद्र को पार करने में पत्थर की नौका के समान हैं। इनके संलग से ज्ञान की वृद्धि तो होती नहीं, क्योंकि जो स्वयं अज्ञानी हैं वे दूसरों को ज्ञानी कैस बना सकते हैं, प्रत्युत सम्यग्ज्ञानी भी उनके संलग से मिथ्याज्ञानी बन जाता है। उनके मिथ्यात्व पूर्ण कथन और व्यवहार से सम्यक्त्व-रत्न भी चला जाता है। अतः । एव कुगुरुओं के संसर्ग से सम्यग्दृष्टि को बचना चाहिए। . जिन्होंने सम्पूर्ण कर्मों का विनाश करके सर्वज्ञता, वीतरागता और अात्मिक सम्पूर्णता प्राप्त की है वही सच्चे देव कहलाते हैं । जिसमें यह लक्षण नहीं पाये जाते फिर भी जो देव रूप से लोक में मान्य समझे जाते हैं वे कुदेव कहलाते हैं। - इसी प्रकार मिथ्या एकान्तवाद की प्ररूपणा करके जगत् को अज्ञान के घोर अंधकार में गिरा देने वाले भी देव नहीं कहला सकते हैं । गाय को देव या देवों का स्थान मान कर उसकी पूजा करना और मूसल, ऊखल, चुल्हा, देहली, पीपल, जल, सूर्य आदि को देव मानना देव-विषयक मिथ्यात्व है। अहिंसा, संयम और तप ही उत्कृष्ट मंगलमय धर्म है । स्वर्ग, सम्पत्ति, देवता का प्रसाद और सुगति प्राप्ति श्रादि सांसारिक प्रयोजनों की सिद्धि के लिए यज्ञ-याग श्रादि के रूप में जीवधारियों की हिंसा करना, अपने लाभ के लिए असत्य बोलना, इत्यादि अधर्म है। इस अधर्म को धर्म मानना धर्मविषयक मिथ्यात्व है। सम्यकदृष्टि को इसका भी परित्याग करना चाहिए । - सूत्रोक्त यह चतुष्टय सम्यग्दर्शन के संरक्षण के लिए अत्यन्त उपयोगी हैं। श्रतएव विवेक के साथ इसे समझकर पालन करना चाहिए। . ___ मूलः-कुप्पवयणयाडी, सव्वेउम्भग्गपट्टिा। ... - सम्भग्गं तु जिणक्खायं, एस मग्गे हि उत्तमे ॥३॥ छाया:-कुप्रवचनपाखण्डिनः सर्वे उन्मार्ग प्रस्थिताः ।। सन्मार्ग तु जिनण्यात, एपोमार्गो हयुत्तमः ॥ ३ ॥
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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