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________________ छठा अध्याय . [ २२७ ] से क्षायिक सम्यक्त्व सब से अधिक निर्मल होता है । एक बार उत्पन्न होने के पश्चात् फिर उसका नाश नहीं होता, जब कि औपशमिक और क्षायोपशमिक सम्यग्दर्शन उत्पन्न होकर फिर नष्ट हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने पर श्रात्मा में एक प्रकार की ऐसी निर्मलता श्रा जाती है, जो मिथ्यात्व की अवस्था में कभी प्राप्त नहीं हुई थी। यही कारण है कि थोड़ी-ली देर, एक अन्तर्मुहूर्त, के लिए भी जिसे सम्यक्त्व प्राप्त हो गया है वह संसार को परिमित कर डालता है और अर्द्ध पुद्गल-परावर्तनकाल में अवश्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। मुक्ति प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन की अपेक्षा होती है। जबतक दृष्टि निर्मल नहीं है तब तक समस्त ज्ञान मिथ्याज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है। मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र भव-भ्रमण का ही कारण है और मुक्ति का प्रतिबंधक है । इसी कारण सम्यग्दर्शन को मुक्ति-महल की पहली पंक्ति कहा गया है । जैसे अंक के विना विन्दु यों की लम्बी लकीर बना देने पर भी उसका कुछ श्रर्थ नहीं होता-उससे कोई भी संख्या निष्पन्न नहीं होती, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना किया जाने वाला प्रयत्न मुक्ति के लिए उपयोगी नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता हुआ भी, और सांसारिक कार्य-कलाप करता हुश्रा भी, जल में रहने वाले कमल की भांति अलिप्त रहता है । उसके परिणामों में संसार के प्रति विरक्ति बनी रहती है। वह चारित्र का पालन न करे तो भी इन्द्रियों के भोगोपभोगों में लोलुप नहीं होता । शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और प्रास्तिक्य के पवित्र भाव उसमें अभिव्यक्त हो जाते हैं । निश्चय सम्यग्दृष्टि प्राणी के राग-द्वेष और मोह अत्यन्त मंद होते हैं । वह ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी श्रात्मीय गुणों के परम रस का आस्वादन करता है । वह पर पदार्थों से आत्म-भाव हटा लेता है। वह देह में रहता हुआ भी देहातीत हो जाता है । यह लक्षण जिसमें पाये जाते हैं वद्द निश्चय सम्यग्दृष्टि है । अरिहन्त भगवान् को देव मानना, छत्तीस गुणों से युक्त निर्ग्रन्थ मुनियों को गुरु समझना और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म को ही कल्याणकारी धर्म मानना व्यवहार सम्यस्त्व है । व्यवहार सम्यक्त्व,निश्चय सम्यक्त्य में कारण होता है, अतएव सूत्रकार ने यहां प्रथम व्यवहार सम्यक्त्व का स्वरूप दिखलाया है। मूलः-परमत्थसंथवोवा, सुदिट्टपरमत्थसेवणा वादि । वावरणकुदंसणवजणा य सम्मत्तसद्दहणा ॥२॥ पाया:-परमार्थ संस्तयः सुदृष्टपरमार्थसंचनावाऽपि । यापनकुदर्शनवर्जन असम्यक्त्यप्रदानम् ॥२॥ शब्दार्थः-तात्विक पदार्थ का चिन्तन करना, तात्विक पदार्थों को सम्यक प्रकार में जानने वालों की शुध्या करना, सम्यग्दर्शन का बनन-त्याग करने वालों तथा मिथ्या
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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