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________________ पांचवां अध्याय [२०७ ] है-वरन् संसार से विरक्त होकर राग के बन्धन को अधिकाधिक काटने का प्रयत्न करता है। इसी प्रकार धन, सम्पत्ति, राज्य, वैभव आदि पदार्थों का वियोग होने पर भी वह दुःख का अनुभव नहीं करता है । वह विचारता है कि संसार के समस्त संयोग. विनश्वर है, शोक करने से उनका विनाश रुक नहीं सकता। अतएव उनके लिए शोक करने से लाभ ही क्या है ? संसार में- . . . . . . मातापितसहस्राणि पुत्रदाहशतानि च । 'प्रतिजन्मनि वर्तन्ते कस्य माता पिताऽपिवा ॥ अर्थात् हजारों माता-पिता हो चुके हैं, सैंकड़ों पुत्र और कलत्र बन चुके हैं। यह तो प्रत्येक जन्म में होते रहते हैं । वास्तव में कौन किसकी माता है ? कौन्द किसका पिता है ? तथा- . रिद्धी सहावतरला, रोगजराभंगुरं हयसरीरं। दोरह पि गमण सीलाण, किपचिरं होज्ज संबंधो ? ॥ अर्थात् ऋद्धि स्वभाव से चंचल है। यह गया-बीता शरीर रोग और जरा के कारण नाशशील है । जव धन-सम्पदा और शरीर दोनों ही विनश्वर हैं तो दोनों का संबंध कितने काल तक रह सकता हैं ? इस प्रकार की विचारधारा में अवगाहन करने वाले ज्ञानी को दुःखों का संताए तनिक भी संतप्त नहीं कर पाता । वह विकट से विकट समझे जाने वाले प्रसंगों पर भी शान्त, विरक्त, साम्यभावी और धैर्य सहित बना रहता है। कमों के फल की विचिअता का विचार करके दुःखों को परास्त कर देता हैं । मान रूपी महामहिम यंत्र में दुःखों को ढाल कर वह सुख रूप परिणत कर सकता है। इसीलिए शालकार ने कहा है कि श्रुतजानी पुरुष संसार में रहती हुश्रा भी दुःख नहीं उठाता । ज्ञानी पुरुष की अनासक्ति ही उसकी रक्षा करने वाले कवच का काम देती है । उसका साम्यभार ही उसकी दाल है, जिससे दुःख का ऋर से ऋर प्रहार भी उसके सामने. वृथा वन जाता है । जान सुख-प्राप्ति की सर्वश्रेष्ठ कला है। झान सुख के अक्षय कोप की कुजी है । जान मुक्ति का द्वार है। जान शिव का सोपान है। 'झानं न कि किं कुरुते नराणाम' अर्थात ज्ञान से मनुष्यों का सभी अभीष्ट सिद्ध हो जाता है। अतएर हे भन्य जीवों ! जान की प्राप्ति के लिए प्रवल पुरुषार्थ करो। निरन्तर अममत्त भाव से ज्ञान की आरधना करो। ऐसा करने से कल्याण तुम्हारे सन्मुख आजायगा । दुःख पास भी नहीं फटक सकेंगे। शान की दिव्य ज्योति पाकर तुम अपने असली रूप को देख पाओगे। ..... मूलः-जावंतविजा पुरिसा, सव्वे ते दुक्खसंभवा। । लुप्पति वहुसो मूढा, संसारम्मि अणंतए ॥ ७ ॥. ..... छाया:-यावन्तोऽविराः पुरषाः सर्वे ते दुसाभवाः । लुप्यन्ते बहुशो मूहाः, संसारे भनन्त के ॥७॥
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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