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________________ २०८ ] . ज्ञान-प्रकरण शब्दार्थः--जितने अज्ञानी पुरुष हैं वे सब दुःखों के पात्र हैं । इसीसे वे मूढ़ पुरुषः । अनन्त संसार में कष्ट भोग रहे हैं। ... भाष्यः-सम्यग्ज्ञान के प्रभाव की प्ररूपणा के अनन्तर उसके प्रभाव का दुष्परिणाम बताने के लिए सूत्रकार कहते हैं-जो पुरुष अविध अर्थात् सम्यग्ज्ञान से रहित हैं वे सब नाना प्रकार के दुःखों के भाजन होते हैं और उन्हें अनन्त संसार में भ्रमण करना पड़ता है। पहले सम्यग्ज्ञान का महत्व बतलाते हुए यह कहा गया है कि शानी पुरुष इष्ट वियोग अनिष्ट संयोग में समभाव रखता है अतएव वह दुःख का वेदन नहीं करता।. इसके विपरीत अज्ञानी पुरुष इष्ट वियोग आदि प्रतिकूल अवसर श्राने पर अत्यन्तः शोक और संताप करके इस जन्म में दुःखी होता है और श्रातध्यान से निकाचित, याप कर्मों का वन्ध करके परलोक में भी दुःख का पात्र बनता है । इसी प्रकार इष्ट संयोग श्रादि अनुकूल प्रसंगों पर हर्ष और अभिमान आदि के वश होकर पाप कर्मों का उपार्जन करता है और उनका फल दुःख रूप होता है। इतना ही नहीं, अज्ञानी पुरुष, अपने अज्ञान के कारण जों संयम का अनुष्ठान करता है वह संयम भी उसके संसार-म्रमण का ही कारण होता है । अतएव सूत्रकार ने अजान का फल दुःख एवं संसार-भ्रमण बतलाया है। अज्ञान की निवृत्ति सम्यक्त्व की प्राप्ति से होती है अतएव भव्य जीवों को सम्यक्त्व ग्रहण करना चाहिए । तदनन्तर पूर्वोक्त श्रोता के गुण से युक्त होकर श्रुतज्ञान का लाभ करके ज्ञान की वृद्धि करनी चाहिए। ..... मूलः-इहमेगे उ मरणंति, अप्पच्चक्खाय पावगं । . : आयरियं विदित्ताणं, सव्वदुक्खा विमुच्चइ ॥ ८ ॥ . छाया:-इहैके तु मन्यन्ते अप्रत्याख्याय पापकम् । । - आचारिको विदित्वा, सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यते ॥८॥ ..शब्दार्थ:--यहां कोई-कोई ऐसा मानते हैं कि पाप का प्रत्याख्यान न करके भी चारित्र को जानकर ही समस्त दुःखों से मुक्त हो सकते हैं। .... .... ... .. भाष्यः-जो लोग दुःखों से मुक्त होने के लिए ज्ञान को ही पर्याप्त मानते हैं और चारित्र की आवश्यकता नहीं समझते, उनके मत का दिग्दर्शन यहां कराया गया है। पहले ज्ञान का जो माहात्म्य बताया गया है उसमें विशेषता घोतित करने के लिए यहां: ... 'तु' अव्यय का प्रयोग किया गया है। :..... :: .. ................. : संसार में मोहनीय कर्म के उदय से अनेक प्रकार के एकान्त प्रचलित हैं। उनमें ज्ञानैकान्त और क्रियकान्त भी है। कोई-कोई लोग एकान्त रूप से. ज्ञान को ही मुक्ति का कारण मानते हैं और कोई एकान्त क्रिया को ही मोक्ष का हेतु स्वीकार करते . हैं । पञ्चमार्क व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहा है अनउत्थियाणं भंते ! एवं श्राइक्वंति, जाव परुवैति-एवं खलु (१) सीलं .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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