SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 260
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . : . .. . [ २०६ ] शान-प्रकरण होती है। उसी को यहां ' उभयं' पद से ग्रहण किया गया है। __ मूलः-जहा सूई ससुत्ता पडिपा विण विणस्सइ । ... - तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ॥ ६॥ छाया:-यथा सूची ससूत्रा, पतिताऽपि न विनश्यति। : . .. : तथा जीवः ससूत्रः संसारे न विनश्यति ।। ६ ॥ .. . ." शब्दाथ:-जैसे ससूत्र-धागा सहित सुई गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती-नहीं . गुमती, इसी प्रकार ससूत्र-श्रुतज्ञान सहित जीव संसार में विनष्ट नहीं होता-कष्ट नहीं पाता है। भाष्यः-श्रुतज्ञान की प्राप्ति के उपायों का निर्देश करके सूत्रकार ने यहां श्रुतज्ञान का प्रभाव प्रदर्शित किया है और इहलोक में भी श्रृंतजान की उपयोगिता दिखलाई है। श्रुतज्ञान का फल परम्परा से मुक्ति प्राप्त करना है. किन्तु इस लोक में भी उसकी अत्यन्त उपयोगिता है। सूत्र (सूत-डोरा.) से युक्त सुई कभी गिर जाय तो. भी वह सदा के लिए गुम नहीं जाती-किन्तु डोरा के संयोग से पुनः प्राप्त हो जाती हैं उसी प्रकार जो मनुष्य भूतज्ञान से युक्त होता है वह संसार में रहता हुआ भी दुःखों से मुक्ल प्राय हो जाता है। .... .. ... ... ... · शंका-आगम में सब संसारी जीवों को श्रुतज्ञानवान बतलाया है अतएव किसी को भी संसार में रहते हुए दुःख नहीं होना चाहिए। ... ...... समाधान-जैसे: यह पुरुष धनवान है ' ऐसा कहने से विशेष धन वाला अर्थ समझा जाता है, उसी प्रकार ससूत्र कहने से यहां विशिष्ट श्रुतज्ञानवान् से तात्पर्य है। अर्थात् जिसे विशिष्ट श्रुतज्ञान की प्राप्ति हो गई है वह दुःख नहीं पाता । श्रुतजान. की कुछ मात्रा तो समस्त छद्मस्थ जीवों में होती है पर विशिष्ट श्रुत का सद्भाव सब में नहीं होता । इसलिए सब जीव दुःख से नहीं बच पाते... ...... - संसार में सब से अधिक दुःख इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग से उत्पन्न होते हैं। इन्हीं दो कारणों में प्रायः अन्य कारणों का समावेश हो जाता है । जानीजन. इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग की अवस्था में व्याकुल, सुब्ध और संतप्त नहीं होता। जिसे प्रशानीजन दुःख का पर्वत समझकर उसका भार वहन करने में अपने को असमर्थ पाता है, नानीजन उसे वस्तुओं का स्वाभाविक परिणमन समझकर मध्यस्थ भाव का अवलम्बन करता है । अज्ञानी जीव इष्ट वियोग और अनिष्ट संयोग रूप दुःस्त्रों की उत्तुंग तरंगों में इधर-उधर बहता हुआ अस्थिर रहता है। ज्ञानीजन उन तरंगों में चट्टान की तरह निश्चल बना रहता है। पुत्र कलत्र प्रादि इष्ट जनों के वियोग से अंजानी जीव आर्तध्यान के वशवती होकर घोर दुःख का अनुभव करता है परन्तु सिद्धान्तवेता बानी पुरुष उसे कर्मों की क्रीडा समझकर साम्यमाव का आश्रय लेता
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy