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________________ पांचवा अध्याय [ २०१३ की मान्यता भी उपर्युक्त कथन से बाधित हो जाती है। वाह्य पदार्थों का वास्तव में अस्तित्व न होता और उनका मालूम होना भ्रम ही होता तो सभी मनुष्यों को, यहां तक कि पशु-पक्षियों तक को एक सा ही भ्रम क्यों होता? उदाहरण के लिए जल को लीजिए । जल वास्तव में जल नहीं है, फिर भी वह एक व्यक्ति को जल मालूम होता ह, तो दूसरे को भी उसी में जल का भ्रम क्यों होता है ? सभी मनुष्य उसी तरल चस्तु को जल क्यों समझते हैं ? पशु-पक्षी भी उसी को जल मानकर प्यास से. व्याकुल होकर क्यों उसकी और दौड़ते आते हैं ? कोई तेल को जल क्यों नहीं समझलेता? चालुका में जल का भ्रम क्यों किसी को नहीं होता ? इसके अतिरिक्त अगर जल वस्तुतः जल नहीं है, तो उसके पीने से तृपा की शान्ति क्यों हो जाती है ? भोजन वास्तव में भोजन नहीं है और बालू भी भोजन नहीं है, तो एक के खाने से क्षुधा की निवृत्ति क्यों होती है और दूसरे के खाने से क्यों नहीं होती ? विष-भक्षण से मृत्यु हो जाता है और औषधि-भक्षण से मृत्यु रुक जाती है. इस विभिन्नता का क्या कारण है ? शून्यवादी या बाह्य पदार्थों को भ्रम-निर्मूल कल्पना समझने वालों के मत के अनुसार सभी प्रतीत होने वाले पदार्थ कुछ नहीं है तो इन सब विचित्रताओं का और लोक प्रसिद्ध व्यवहारों का क्या कारण है ?. वस्तुतः पदार्थ का सद्भाव है और भिन्न-भिन्न पदार्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं । उन विभिन्न शक्तियों का प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है और उसका हमें सदैव अनुभव होता है । इस लिए यह स्वीकार करना ही युक्ति-संगत है कि ज्ञान का अस्तित्व है और उस झान से प्रतीत होने वाले द्रव्यों का, गुणों का और पर्यायों का भी अस्तित्व है। ... पांच प्रकार का जान सभी द्रव्यों को, गुणों को और पर्यायों को जानता है, इस कथन का तात्पर्य यह नहीं समझना चाहिए कि प्रत्येक ज्ञान सब को ग्रहण करता है । क्योंकि मति-श्रुतजान सब द्रव्यों को जानते हैं पर सब पर्यायों को नहीं जानते । अवधिशान और मनःपर्यायलान सिर्फ रूपी द्रव्यों को ही जानते हैं। सूत्रकार का आशय यह है कि इन पांच जानों के विषय से अतिरिक्त और कोई विषय नहीं है। द्रव्य, गुण और पर्याय के स्वरूप का विवेचन पहले किया जा चुका है अतएव यहां नहीं किया जाता। ज्ञान श्रात्मा का गुण है और सूत्रकार के कथनानुसार सभी गुण जान के द्वारा जाने जाते हैं, इससे यह भी सिद्ध होता है कि ज्ञान स्वयं भी जान के द्वारा जाना जाता है। जैसे दीपक अन्य पदार्थों को प्रकाशित करने के साथ अपने आप को भी प्रका- . शित करता है उसी प्रकार ज्ञान अपने श्राप को और अन्य बाह्य पदार्थों को प्रकाशित करता है । जो ज्ञान अपने स्वरूप को न जाने वह बाह्य पदार्थों को भी नहीं जान सकता । कल्पना कीजिए हमें सामने खदे हुए घोड़े का ज्ञान तो हो जाब, परान का मान न हो अर्थात यह मालूम न हो कि हम घोड़े को जान रहे हैं, तो वास्तव में हमें चोरे का बोध होना संभव नहीं है। अतएव इस कथन से भह मतानुयायियों का तथा नैयायिकों का मत भी खंडित हो जाता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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