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________________ [ २०२ ] झान-प्रकरण मूल:-पढमं नाणं तो दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए। अन्नाणी किं काही, किंवा नाहीइ छेयपावकगं ॥४॥ ...... छायाः-प्रथमं ज्ञानं नतो दया, एवं तिष्ठति सर्वसंगतः। :..::. . .. अज्ञानी किं करिष्यति, किंवा ज्ञास्पतिश्रेयः (छक ) पापकम् ॥ शब्दार्थः-पहले ज्ञान, फिर पांचरण, इसी प्रकार सब संयमी व्यवहार करते हैं। अज्ञानी क्या करेगा? यह पाप-पुण्यं को क्या समझेगा ? . भाज्या-ज्ञान-स्वरूप के निरूपण के पश्चात सूत्रकार यहां ज्ञान की महत्ता का .. दिग्दर्शन कराते हैं। . सब संयमी पुरुष पहले संयम के विषयभूत पदार्थों का सम्यग्ज्ञान प्राप्त करते है, और सम्यग्ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् ही दया का अर्थात् संयम का यथावत आचरण करते हैं । जिसे जीव आदि प्रयोजन भृत तत्वों का ज्ञान नहीं है अथवा यथार्थः सम्यग्ज्ञान नहीं है वह जीव-रक्षा रूप संयम का आचरण नहीं कर सकता। जिसे सत् और असत् का विवेक ज्ञान नहीं है जो आस्रव और संवर के स्वरूप का जाता नहीं है वह पानव के कारणों का परित्याग करके संबर से संवृत नहीं बन सकता । श्रतएव निर्दोष संयम का पालन करने के लिए पहले प्रयोजनभूत संम्यग्ज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता है। प्रयोजन भूत ज्ञान कहने का श्राशय यह है कि जगत् के पदार्थों का प्रयोजन .. शन्य ज्ञान न होने पर भी संयम-पालन में कोई त्रुटि नहीं हो सकती। किस प्रकार के रासायनिक-सम्मिश्रण से कौन-सी वस्तु उत्पन्न हो जाती है, किस यंत्र में कितने पुर्जे होते हैं और उनका किस प्रकार संयोग करने से कार्ययंत्र बन जाता है ? इत्यादि जान ममन पुरुषों के लिए प्रयोजन भूत नहीं है। यहां ऐसे जान की महत्ता का प्रतिपादन नहीं किया गया है । मुमुक्षु प्राणी के लिए तो यह ज्ञान होना चाहिए कि श्रात्मा का वास्तविक स्वरूप क्या है ? वह अपने स्वरूप से च्युत क्यों हो रहा है ? किन उपार्यो से वह अपने असली स्वरूप की प्राप्ति कर सकता है ? जीव क्या है ? उसकी रक्षा किस प्रकार के व्यवहार से हो सकती है ? इत्यादि ! इन सब बातों को बिना जाने, लौकिक जान चाहे जितना हो, कार्यकारी नहीं होता। वह एक प्रकार का भार ही है। .. उस से आत्म-कल्याण में सहायता नहीं मिलती। .... .. इसके विपरीत प्रयोजन भूत ज्ञान के बिना संयम का अनुष्ठान ही नहीं हो. सकता। शास्त्र में कहा है: “गोयमा ! जस्स णं सव्वपाणेहि जाव सध्वसत्तेहि पच्चक्खायमिति वदमाणस्स गो एवं अभिसमरणागयं भवति-इमें जीवा, इमे अजीवा, इमे त्रसा, इमे थावरा, तस्सण सव्वपाणेहिं जाव सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वद्माणस्स नो सुपञ्चक्खायं भवति, दुपच्चक्खायं भवति । एवं खलु से दुपच्चक्खाई सव्वपाणेहिं जाव -
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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