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________________ A [.. १६८ झान-प्रकरण - मूलः-अह सव्वदव्वपरिणामभावविएणत्तिकारणमणतं । सासयमप्पडिवाई एगविहं केवलं नाणं ॥ २ ॥ आया:-अंथ सर्वदन्यपरिणामभावविज्ञप्तिकारणमनन्तम् ।.... __" " . . . 'शाश्वतमप्रतिपाति च एकविध केवलं ज्ञानम् ॥ २॥ ... ... शब्दार्थ:- केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, पयर्थीयों को और गुणों को जानने का कारण है, अनन्त है, शाश्वत है, अप्रतिपाती है और एक ही प्रकार का है।... ... भाष्यः-पांचो ज्ञानों में केवलहान सर्वश्रेष्ठ है । मुक्ति में वहीं विद्यमान रहता है और जीवन्मुक्त अवस्था में उसी से प्रमेय पदार्थों को जान कर सर्वज्ञ भगवान् वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। वही श्रागम का मुंल है। अतएव सुत्रकार ने उसको पृथक् स्वरूप निरूपणं किया है। . केवलझान अकेला ही रहता है, अन्य किसी ज्ञान के साथ उसका सदभाव नहीं पाया जाता, अतएव उसे 'केवल' ( अकेला ) शान कहा गया है । अथवा केवल का अर्थ 'असहाय' अर्थात् ' बिना किसी की सहायता से उत्पन्न होने वाला ऐसा भी होता है। यह ज्ञान अन्य-निरपेक्ष होता है. अतः इसे 'केवलं' कहते हैं । संस्कृत आषा के अनुसार केवल शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- 'यदर्थमर्थिनो मार्ग केवन्तेसेवन्ते तत् केवलम्' अर्थात् अर्थीजन जिसे प्राप्त करने के लिए संयम-मार्ग का सेवन करते हैं वह केवलज्ञान कहलाता है.। ...................... ... केवलज्ञान समस्त द्रव्यों को, समस्त पर्यायों कों और समस्त भावों अर्थात गुणों को जानने में कारण हैं। अनन्त ज्ञेय इसके विषय है अतः यह ज्ञान भी अनन्त है। काल की अपेक्षा शाश्वत है और एक बार उत्पन्न होने पर फिर कभी उसका विनाशं नहीं होता अतएव वह अप्रतिपाती भी है। केवलज्ञान विषय की अपेक्षा से एक प्रकार का ही है, क्योंकि उसमें न्यूनाधिकता नहीं होती। श्रावरण के क्षयोपशम की न्यूनाधिकता से ज्ञान में न्यूनाधिकता होती हैं । केवलज्ञान प्रावरण के सर्वथा क्षय होने पर आविर्भूत होता है. इस कारण उसमें न्यूनाधिकता का संभव नहीं है। केवल ज्ञान का कुछ वर्णन पहली गाथा में किया जा चुका है, अतएव यहां नहीं दुहराया जाता........ ': - मूल:-एयं पंचविहं नाणं, दव्वाण य गुपाए य..... . . पंजवाणं च सव्वेसि, नाणं नाणीहि देसियं ॥ ३॥ . .... . . छायाः-एतत् पञ्चविध ज्ञानम् , द्रल्याणां च गुणाणान। .. ' ..पर्यवाणान सर्वेषां ज्ञान शानिमिर्देशितम् ॥ ३॥ .:: ...शब्दार्थ:-यह पांच प्रकार का ज्ञान संव द्रव्यों को; संव गुणों को और सब पर्यायों को जानता है, ऐसा ज्ञानियों ने कहा है। .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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