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________________ - पांचवा अध्याय [ १६७ ] जान के भेद बताये हैं. पर वे भेद विषय की अपेक्षा नहीं किन्तु स्वामी के अपेक्षा से कहे गये हैं। कोई-कोई श्राधुनिक पण्डितमन्य लोग इन भेदों के आधार पर केवल जान के विषय में न्यूनाधिकता की कल्पना करके सर्वज को असर्वज सिद्ध करने कर प्रयास करते हैं किन्तु वह निराधार और युक्ति से विरुद्ध है । वास्तव में ज्ञान प्रात्म का स्वभाव है । वह स्वभाव, जान को-आच्छादित करने वाले जानावरण कर्म के द्वारा आच्छिन्न हो रहा है, फिर भी वह समूल नष्ट नहीं होता।.एकेन्द्रिय जीवों में भी उस की कुछ न कुछ सत्ता बनी ही रहती है। जब श्रात्मा विकास की ओर अग्रसर होता है तब ज्ञानावरण कर्म शिथिल होता जाता है और जितने अंशों में ज्ञानावर शिथिल होता है उतने अंशों में झान प्रकट होता चलता है । इस प्रकार जब आत्मा पूर्ण विकास की सीमा पर जा पहुंचता है तब शान भी परिपूर्ण रूप में प्रकाशमान हो जातर है। उस समय अक्षान कर अंश नहीं रह सकता। अजान, विकारमूलक श्रतएव औपाधिक है । विकारों का विनाश हो जाने पर भी यदि अज्ञान का सर्वथा विनाश न हो तो अजान विकारमुलक न होकर आत्मा का स्वभाव ही सिद्ध होगा। श्रतएव जो लोग प्रात्मा का स्वभाव अजान नहीं मानते उन्हें उसका अत्यन्त विनाश स्वीकार करना पड़ेगा और अज्ञान का पूर्ण विनाश हो जाना ही सर्वज्ञ-अवस्था है। इस प्रकार युक्ति से सर्वज्ञता सिद्ध होती है। सर्वज-सिद्धि के लिए विशेष जिज्ञासुओं को न्याय-शास्त्र का अवलोकन करना चाहिए । उल्लिखित पांच ज्ञानों में से, एक श्रात्मा को, एक ही साथ अधिक से अधिक चार ज्ञान होते हैं। केवलजान केला होता है। जब केवलज्ञान की उत्पत्ति होती है तो शेष चार क्षायोपशमिक ज्ञानों का सद्भाव नहीं रहता, क्योंकि वे क्षायोपशमजन्य है और अपूर्व हैं। - : जान की उत्पत्ति यद्यपि ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से या क्षय से होती है किन्तु उसमें सम्यक्पन या मिथ्यापन मोहनीय कर्म के निमित्त से पाता है । तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व मोहनीय के संसर्ग से जान-कुज्ञान-मिथ्याज्ञान या अजान यन जाता है। जैसे दूध स्वभावतः मधुर होने पर भी कटुक तूम्ये के संसर्ग से कदुक होजाता है उसी प्रकार मिथ्यात्व की संगति से बान मिथ्याज्ञान वन जाता है । पांच शानों में से सिर्फ मतिक्षान, भुतज्ञान और अवधिज्ञान ही मिथ्यादि जीवों को होते हैं । अतएच इन्हीं तीन भानों के कुमतिक्षान, कुश्रुतानं और कुंवधि या विभंगमान रूप होते हैं। मनःपर्यायशान और केवलज्ञान सम्यग्दृष्टियों को ही होते हैं इनके मिथ्या रूप नहीं होते। . , . . . . . . . . . . . . . उपर्युक्त तीन मिथ्याशानों को अज्ञान कहते हैं। अजान का अर्थ बहा 'जान का अभाव' नहीं किन्तु कुत्सित अर्थ में न समास होने के कारण 'कुत्सित मान' ऐसा भर्ध होता है।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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