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________________ अभ्या [ १६१ ] मालूम होता है । ईहा ज्ञान सद्भूत धर्म को ग्रहण करने के लिए उन्मुख होता है और श्रसद्भूत धर्म को त्याग करने के सन्मुख होता है । 'यह मनुष्य दक्षिणी होना चाहिए' इस प्रकार सद्भूत पदार्थ की और भुकता हुआ ज्ञान ईहा कहलाता है । ईहा के पश्चात् श्रात्मा की ग्रहण - शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है, श्रतएव 'यह दक्षिणी ही है ' इस प्रकार के निश्चयात्मक बोध की उत्पत्ति होती है इसे पाप या वाय कहते हैं । अवाय के द्वारा पदार्थ को संस्कार या वासना के रूप में धारण कर लेना जिससे कि कालान्तर में उसकी स्मृति हो सके - धारणा ज्ञान कहलाता है । मतिज्ञान के इन भेदों की उत्पत्ति इसी क्रम से होती है । दर्शन, श्रवग्रह, संशय, ईहा, श्रवाय और धारणा - यही ज्ञानोत्पत्ति का क्रम है। बिना दर्शन के श्रवग्रह नहीं हो सकता, बिना श्रवग्रह के संशय नहीं हो सकता, इसी प्रकार पूर्व-पूर्व के बिना उत्तरोत्तर ज्ञानों का प्रादुर्भाव होना संभव नहीं है। कभी-कभी हम अत्यन्त परिचित वस्तु को देखते हैं तो ऐसा जान पड़ता है, मानों दर्शन - श्रवमद आदि हुए बिना ही सीधा श्रवाय ज्ञान हो गया हो, क्योंकि देखते ही वस्तु का विशेष व्यवसाय हो जाता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता । श्रतिशय परिचित पदार्थ का निश्चय भी दर्शनश्रवग्रह आदि के क्रम से ही होता है, पर शीघ्रता के कारण हमें क्रम का ज्ञान नहीं हो पाता । कमल के सौ पत्तों को, एक-दूसरे के ऊपर जमाकर कोई उसमें पूरी शक्ति के साथ यांदे भाला घुसेड़े तो वह भाला इतना जल्दी पत्तों में घुस जायगा कि ऐसा मालूम होगा, मानों सब पत्ते एक साथ ही छिंद गये हों । पर जरा सावधानी से विचार किया जाय तो मालूम होगा कि भाला सर्वप्रथम पहले पत्ते को छुश्रा, फिर उसमें घुसा और फिर उससे बाहर निकला। इसके बाद फिर इसी क्रमसे दूसरे, तीसरे आदि पत्तों को छेदता है । जब भाले जैसे स्थूल पदार्थ का व्यापार इस तेजी से होता है कि कम का भान ही नहीं हो पाता तो ज्ञान जैसी सूक्ष्म वस्तु का व्यापार उससे भी अधिक शीघ्रता से हो, इसमें क्या आश्चर्य है ! श्रतपव क्रम चाहे प्रतीत हो चाहे न हो, पर सर्वत्र यही क्रम होता है, यह निश्चित है । .: पूर्वोक्त श्रवग्रह ज्ञान दो प्रकार का है - (१) व्यञ्जनावग्रह और (२) श्रर्थावग्रह । 1 . जैसे दीपक के द्वारा घट प्रकट किया जाता है उसी प्रकार जिसके द्वारा अर्थ प्रकट किया जाय वह व्यञ्जन कहलाता है । वह उपकारखेन्द्रिय और शब्द आदि रूप परिणत द्रव्य का संबंध रूप है । तात्पर्य यह है कि इन्द्रिय और विषय का संबंध व्यंजन कहलाता है और उसमें ज्ञान की मात्रा अल्प होती है, अतएव वह अव्यक्त होता है । जैसे नवीन सिकोरे पर एक-दो पानी के बिन्दु डालने से वह श्राई नहीं होता, उसी प्रकार इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण किये जाने वाले पदार्थ एक-दो समय में व्यक्त नहीं होते, किन्तु वारम्वार महस करने से व्यक्त होते हैं। यहां व्यक्त अवग्रह से पहले जो श्रवग्रह होता है वह व्यंजनावग्रह है । व्यंजनावग्रह चक्षु और मन को छोड़कर शेष चार इन्द्रियों द्वारा ही होता है, क्योंकि यही चार इन्द्रियां प्राप्यकारी हैं । चक्षु और मन, पदार्थ का स्पर्श किये बिना ही पदार्थ को जानते हैं, जबकि
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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