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________________ .. [ १६० ] ज्ञान-प्रकरण ज्ञान कहलाता है। यह श्रुतज्ञान शब्दोल्लेख के साथ उत्पन्न होता है अतएव अपने विषयभूत घट श्रादि पदार्थों के प्रतिपादक. घट आदि शब्दों का जनक होता है और उसले अर्थ की प्रतीति कराता है। मतिज्ञान में शब्दोल्लेख नहीं होता है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि श्रुतज्ञान का यहाँ जो लक्षण कहा गया है वह एकेन्द्रिय जीवों में नहीं पाया जा सकता है। इसका समाधान यह है कि-एकेन्द्रिय जीवों के द्रव्य श्रुत का अभाव होने पर भी सोते हुए साधु के समान भाव-श्रुत है। पृथ्वीकाय आदि जीवों को द्रव्य इन्द्रिय का प्रभाव होने पर भी सूक्ष्म भाव-इन्द्रिय का ज्ञान होता है इसी प्रकार द्रव्य श्रुत का अभाव होने पर भी उनके भाव श्रत का सद्भाव है। . इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का भेद यहाँ बतलाया गया है। उससे यह नहीं समझना चाहिए कि दोनों ज्ञान सर्वथा भिन्न ही हैं। क्योंकि एक प्रकार का विशिष्ट मातश्चान ही श्रुतज्ञान है । जैसे सूत और सूत से बनी हुई रस्सी में अत्यन्त भेद नहीं है.उसी प्रकार मतिज्ञान से उत्पन्न होने वाला श्रुतज्ञान मतिज्ञान से सर्वथा भिन्न नहीं है। दोनों में कार्य-कारण भाव संबंध है और कार्य-कारण में सर्वथा भेद नहीं होता। जैसे सोना और सोने से बना हुश्रा कुंडल एकान्त भिन्न नही है, उसी प्रकार मतिज्ञान और मतिज्ञान-जन्य श्रुतज्ञान भी.एकान्त भिन्न नहीं हैं। : '. आत्मा जब किसी वस्तु को जानने के लिए उन्मुख होता है तब सर्वप्रथम उसे उस वस्तु के सामान्य धर्म अर्थात् सत्ता का प्रतिभास होता है सत्ता या महासामान्य के प्रतिभास को दर्शनोपयोग कहा गया है । दर्शनोपयोग यद्यपि ज्ञान से भिन्न माना जाता है, क्योंकि उसमें विशेष का प्रतिभास नही होता, तथापि वह भी झान का ही प्रारंभिक रूप है और ज्ञान की सामान्य मात्रा उसमें भी पाई जाती है। दर्शन के अनन्तर अात्मा वस्तु के विशेष धर्मों को जानने योग्य बनता है। उस समय मतिज्ञान का प्रारंभ होता है । मतिज्ञान के, विकासक्रम के अनुसार चार मुख्य भेद माने गये हैं-(१) श्रवग्रह (२) ईहा (३) अंवाय और (४) धारणा । दर्शन के अनन्तर अव्यक्त रूप से अर्थात् अवान्तर सामान्य रूप वस्तु को ग्रहण करने वाला ज्ञान श्रवग्रह कालाता है। दर्शन भी सामान्य को ग्रहण करता है और प्रवग्रह शान भी सामान्य को ग्रहण करता है, फिर भी दोनों के विषयभूत सामान्य में भेद है। दर्शन सत्ता सामान्य । महासामान्य ) को विषय करता है और अवग्रह मनुष्यत्व श्रादि अवान्तर सामान्य को जानता है । 'कुछ है' ऐसा ज्ञान दर्शन के द्वारा होता है। उसके अनन्तर जव ज्ञान का किञ्चित् विकास होता है तो मनुष्य है' ऐसा ज्ञान अवग्रह द्वारा होता है। प्रवग्रह ज्ञान के अनन्तर नियम से संशय होता है । वह 'यह मनुष्य दक्षिणी है या पश्रिमी है। इस प्रकार से उत्पन्न होता है । इस संशय का निवारण करते हुए, ईहा बान की उत्पत्ति होती है। संशय में सद्भुत और सद्भूत-दोनों धर्म तुल्य कोटि के होते हैं। न तो सद्भूत धर्म का सद्भाव सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण होता है और न असद्भूत धर्म का अभाव सिद्ध करने वाला ही प्रमाण उस समय
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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