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________________ । १६२ ] ज्ञान-प्रकरण स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियाँ, क्रमशः स्पर्श, रस, गंध और शब्द को स्पर्श करके ही जानती हैं। अतएव व्यञ्जन अवग्रह के चार भेद होते हैं। : :: . कोई-कोई लोग स्पर्शनं आदि की भांति चक्षु को भी प्राप्यकारी मानते हैं, सें उचित नहीं है। चक्षु-इन्द्रिय यदि पदार्थ को स्पर्श करके पदार्थ को जाने तो अग्नि को जानते समय, अग्नि के साथ उसका स्पर्श होना स्वीकार करना पड़ेगा और एसी स्थिति में वह दग्धं क्यों न होगी? इसी प्रकार कांच की शीशी में स्थित वस्तु के साथ चक्षु का सम्बन्ध न हो सकने के कारण उसका ज्ञान न हो सकेगा । अतएवं चनु को अप्राप्यकारी ही स्वीकार करना चाहिए । विस्तार भय से यहां इस विषय का विशेष-विचार नहीं किया गया है। ...................... • इसी प्रकार मन भी अप्राप्यकारी है। जो लोग मन को प्राप्यकारी मानते हैं वे भाव मन को प्राप्यकारी कहेंगे या द्रव्य मन को ? अर्थात्.भावमन पदार्थ के पाल जाता है या द्रव्यमन ? भावमन चिन्तन-ज्ञान रूप है और चिन्तन ज्ञान जीव ले. अभिन्न होने के कारण जीव रूप ही है। जीव रूप सावमन शरीर में व्याप्त है। वह शरीर में बाहर नहीं निकल सकता, जैसे कि शरीर का रूप शरीर से बाहर नहीं निकलं सकता। यदि यह कहा जाय कि- द्रव्यमन विषय-देश में जाता है और विषय को स्पर्श करके उसे जानता है, सो यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है । काययोग के अवलस्बनासे, जीव द्वारा ग्रहण किये हुए, चिन्तन को प्रवृत्त कराने वाले मनोवर्गणा के. अंन्तर्गतःद्रव्यों का समूह द्रव्यमन कहलाता है। द्रव्यमन पुगल रूप होने के कारक जड़ है. अचान रूप हैं। वह विषय-देश में जा करके भी विषय को ग्रहण नहीं कर लकता। अतएव उसें प्राप्यकारी मानना निरर्थक है। इस प्रकार मन भी अप्राप्यकारी सिद्ध होता है. .. ...... ................ ... अव्यक्त शब्द आदि विषय को ग्रहण करने वाला अर्थावग्रह कहलाता है। यह अर्थावग्रह सिर्फ एक समय मान रहता है और अपेक्षा भेद से असंख्यात समय का भी होता है । अर्थावग्रह पांचों इन्द्रियों से तथा मन से होता है, अतएव उसके .. छह भेद होते हैं।..::....: . ......... ............ .....: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा, बारह प्रकार के पदार्थों को ग्रहण करते हैं। वे इस प्रकार हैं:- (१) बहु-बहुत को (२) एक को (३) बहुत प्रकार के पदार्थ को (४) एक प्रकार के पदार्थ को (५) क्षिप्र-जिसका ज्ञान शीन हो जाय (६. अक्षिणजिसका ज्ञान देर से हो (७, अनिःसृत-जों पदार्थ पूरा बाहर न निकला हो (E) नि: त-जो पूरा निकला हो (६) उक्त-कथित (१०) अंनुक्त-जिलका ज्ञान बिना कहे अभिप्राय से हों. (२) व-निश्चल (१२) अध्व-अनिश्चलः। इन बारह प्रकार के. पदाथों को विषय करने के कारण अंवग्रह आदि चारों के बारह-चारह भेद होकर अंडतालीस भंद मतिज्ञान के होते हैं । अड़तालीस प्रकार का यह मतिज्ञान पांचों-इन्द्रियों और मन स होता है. अतएव छह से गुणा करने पर दो सौ श्रद्धासी ( २८८.) भेदः, हो जाते हैं। . ..... . .. . .. ... .
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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