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________________ पांचवां अध्याय ( छयासठ सागरोपम ) बतलाया है उतना ही स्थितिकाल अवधिनात का होने के कारण काल की समानता है । सम्यक्त्व प्राप्ति से पहले जैले.. मतिजान और श्रुतज्ञान विपरित ( मियाजान ) होते हैं उसी प्रकार मिथ्यात्व के उदय की अवस्था में अवधिजान भी विपरीत होता है, इस प्रकार तीनों में विपर्यय रूप से लमानता. है । जो मतिज्ञान और शुनजान का स्वामी होता है वही अवधिजान का स्वामी हो सकता है, अतएव स्वामी संबंधी समानता है । सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर तीनो ज्ञान प्रज्ञान मिट कर एक ही साथ जान रूपता का लाभ करते हैं, अतः लाभ की अपेक्षा भी तीनों ज्ञानों में साधय है। इन सब सदृशताओं के कारण श्रुतज्ञान और मतिज्ञान के पश्चात् अवधिजान का उल्लेख किया गया है। अवधिज्ञान की मनःपर्यायज्ञान के साथ अनेक समानताएँ है अतएव अवधिनान के पश्चात् मनःपर्याय ज्ञान का उल्लेख किया है। जैसे-अवधिजान छद्मस्थों को होता है और मनःपर्यायजान भी छद्मस्थों को होता है। अवधेिज.न पुद्गल को विषय करता है और मनःपर्यायजान भी पुद्गल को विषय करता है अतएव विषय की अपेक्षा भी दोनों में सादृश्य है । इसके अतिरिक्त दोनों जान, जनावरण कर्म के क्षयोपक्षम से ही उत्पन्न होते हैं इसलिए भी अवधिज्ञान के अनन्तरं मनःपर्याय ज्ञान का उल्लेख किया गया है। केवलजान अन्त में प्राप्त होता है इसलिए अन्त में उसका निर्देश किया गया है। इन पांचों ज्ञानों में मतिजान और श्रुतजान परोक्ष हैं और शेष तीन जाने प्रत्यक्ष है। ... जीव के द्वारा जो लुना जाता है उसे श्रुत कहते हैं । मतिजान के पश्चात जो विशेष जान शब्द के बाच्य-वाचक भाव की अपेक्षा रख कर होता हैं वह श्रुतनानं कहलाता है । वस्तुतः ज्ञान प्रात्मा से कथंचित् अभिन है अतएव अात्मा भावश्रुत रूपं है, क्योंकि वह सुनता है । जिसे सुना जाता है वह शब्द द्रव्य-श्रुत है। द्व्य-श्रुतं रूप शन्द यद्यपि पुद्गल रूप होने के कारण अचेतन है-'अज्ञानमय है, इसलिए उसे ज्ञान नहीं कहा जा सकता, फिर भी वक्ता के द्वारा प्रयोग किया जाने वाला शब्द श्रोता के श्रुतज्ञान का कारण होता है और वक्ता का श्रुतीपयोग बोले जाने वाले शब्दं का कारण होता है, अतएव श्रुतझान के कारणभूत या कार्यभूत शब्द में श्रुत का उपचार किया जाता है । इससे यह स्पष्ट हो चुका कि शब्द परमार्थ से श्रुत नहीं है किन्तु उपचार से श्रुत कहलाता है। परमार्थ से श्रुत वह है जो सुनता है-श्रर्थात् आत्मा अथवा श्रात्मा का शब्द-विपयात्मकं उपयोग रूप धर्म। पदार्थ के श्रभिमुख अर्थात् पदार्थ के होने पर ही होने वाला, निश्चयात्मक, इन्द्रिय और मन से उद्भूत ज्ञान अभिनिबोध ज्ञान या मतिज्ञान कहलाता है। . . मतिज्ञान और श्रुतशान दोनों हो शान इन्द्रियों और मन से उत्पन्न होते हैं फिर भी दोनों में काफ़ी अन्तर है। श्रुतज्ञान संकेत-विषयक परोपदेश रूप होता है अर्थात् संकेत कालीन शब्द का अनुसरण करके वाच्य-वाचक भाव संबंध से युक्त होकर 'घट-घट' इस प्रकार आन्तरिक शब्दोल्लेन सहित, इन्द्रिय और मनोजन्य ज्ञान श्रुत:
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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