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________________ चतुर्थ अध्याय [ १७६ ] जिन धर्म में यतना का बड़ा महत्व है। सावधानता, श्रप्रमाद अथवा हिंसारहित प्रवृत्ति या जागरूकता को यतना कहते हैं । जो प्रवृत्ति यतना के साथ की जाती है उसमें शुभ योग होता है और यतनापूर्वक की जाने वाली प्रवृत्ति में अशुभ योग होता है | शुभ योग के सद्भाव में पाप कर्म का बन्ध नहीं होता । अतएव पाप से बचने के लिए यतनापूर्वक ही प्रवृत्त होना चाहिए । यतना के साथ क्रिया करने में यदि विराधना हो भी गई तो वह भाव पाप का कारण नहीं होती । इसके विरुद्ध जो विना यतना के प्रतिलेखन आदि धार्मिक क्रिया करता है वह विराधना का भागी होता है । कहा है पुढवी आक्काए, तेऊवाऊवणस्सइतसाणं । पडिलेापमत्तो, छरहं पि विराहओ होइ ॥ अर्थात् प्रतिलेखना में प्रमादी ( यतनापूर्वक आचरण करने वाला ) पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय, इन छहों कार्यो की विराधना करता है । ( इन अवतरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि एक ही काल में, एक ही क्षेत्र में, एक-सी ही क्रिया करने वाले दो पुरुषों में से जो यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता है वह नवीन कर्मों को नहीं बांधता, इतना ही नहीं किन्तु पूर्व-वद्ध कर्मों का क्षय ( निर्जरा ) भी करता है और अयतना से वही प्रवृत्ति करने वाला नवीन पाप कर्म का बन्ध करता है । श्रर्थात् एक के पुराने बँधे हुए कर्म खिरते हैं और दूसरे के नये कर्म बँधते हैं ! इतना महान् श्रन्तर केवल यतना-श्रयतना के कारण हो जाता है । इससे जाना जा सकता है कि आचार धर्म में यतना का कितना महत्वपूर्ण और उच्च स्थान है ? वास्तव में यतना में ही धर्म और प्रयतना में ही अधर्म है । श्रतः सुमुक्षुजनों को प्रत्येक प्रवृत्ति यतना- श्रप्रमाद - पूर्वक करनी चाहिए । गाथा में 'जयं' शब्द विशेषण है । उससे क्रिया की विशेषता प्रकट होती है । क्रिया विशेषण नपुंसक लिंग और एकचचन में ही प्रयुक्त होता है, तदनुसार यहां भी 'जय' पद नपुंसक लिंग एकवचन है। पूर्व गाथा में कहे अनुसार यहां भी उपलक्षण से प्रतिलेखना, प्रभार्जना आदि अन्य समस्त क्रियाओं का ग्रहण करना चाहिए । मूल:- पच्छा वि ते पयाया, खिपं गच्छति अमरभवणाई । जो पियो तवो संजमो य, खंती य वंभचेरं च ॥ २२॥ छाया:- पश्चादपि ते प्रयाताः, क्षिप्रं गच्छन्ति श्रमरभवनानि । येषां प्रियं तपः संयमश्च क्षान्तिश्च ब्रह्मचर्यञ्च ॥ २२ ॥ शब्दार्थ:संयम और क्षमा तथा ब्रह्मचर्य प्यारा है, वे शीघ्र देवभवनों को जाते हैं । :- पश्चात् अर्थात् वृद्धावस्था में भी संयम को प्राप्त हुए मनुष्य, जिन्हें वप
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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