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________________ वितीय परिछेद. (६१) करे, जेम प्रतिपाद्य, प्रतिपादक, सजा, सजापति जननी पेठे, ते कारगथी अनुमान पण थ शकेले, अने ज्यारे सकल अनादि अविद्यानो विलास दूर थर जाशे त्यारे तो प्रतिजासांत प्रविष्ट प्रतिजास थशे. विवाद पण नहि रहे, पतिपाद्य प्रतिपादक साध्य साधक नाव पण रहेशे नहि. पड़ी तो अनुमान करवानुं पण कांश फल नहि. आपज अनुजवमान परमब्रह्म बने ते देश काल अव्यवबिन्न खरूप प्रगट थतां नियंनिचार, सकल अवस्था व्यापकपणा वालामां अनुमाननो कांश प्रयोगज जोश्तो नथी. उत्तरपद-जो अनादि अविद्या प्रतिनासांत प्रविष्ट ने तो तो विद्या थश् गइ. त्यारे हवे असत्रूप (१) धर्मी (२) हेतु (३) दृष्टांतादि जेद केम देखी शकाय. जो कहो के प्रतिनासनी बाहिरनूत तो तो अविद्या प्रतिनासमान के अप्रतिजासमान ? ते अविद्या प्रतिनासमान रूप होवाथी अप्रतिनासमान तो नहि. जो एम कहो के प्रतिजासमान , तो तेनीज साथे हेतु, व्यजिचारी ३. तथा प्रतिनासनी बाहिरजूत होवाथी तेनो प्रतिनासमान होवाथी जो कदी तमारा मनमा एम होय के अविद्या जे जे ते नथी प्रतिमासमान के नथी अप्रतिजासमान, नथी प्रतिनासनी बाहिर के नथी प्रतिजासनी अंदर प्रविष्ट, नथी एक के नथी अनेक, नथी नित्य के नथी अनित्य, नथी व्यभिचारिणी के नथी अव्यभिचारिणी, सर्वथा विचारने योग्य नथी, सकल विचारांतर अतिक्रांत स्वरूप बे, रूपांतरना बजावधी अविद्या जे ले ते नीरूपता लक्षण , श्रा पण तमारो अज्ञाननो विस्तार , तेवी नीरूपता खनावने आ अविद्या , आ अप्रतिनासमान डे, एम कोण कथन करवाने समर्थ डे ? जो एम कहो के आ अविद्या प्रतिजासमान ने तो पड़ी केवीरीतें अविद्या नीरूप सिंह थशे, जे वस्तु जे खरूपथी प्रतिनासमान बे, ते तेज वस्तुनुं रूप बे; तथा अविद्या जे जे ते विचारगोचर के विचारगोचरतारहित जे ? जो कहो के विचारगोचर डे तो तो नीरूप नहि, जो विचारगोचर नथी तो तो तेने माननार महामूर्ख बे. ज्यारे विद्या, अविद्या बंने सिक, त्यारे एक परम ब्रह्म अनुमानथी केम सिफ थया ? था केहेवाथी उपनिषदूमा जे एक ब्रह्मने कहेनारी
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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