SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (३७०) जैनतत्त्वादर्श. आधीन बे; तेम उतां मूढात्मा बिसी जेम फोकट मनोरथ करे ने. श्रा सर्व विना प्रयोजननां पाप बे, तेथी अनर्थदंम लागे . . '. ३ त्रीजु रोगनिदानार्तध्यान. मारा शरीरमां को कोइ वखत रोग थाय , ते न थाय तो सालं. एवो विचार लावी, लोकोने पुढे के अमुक रोगनो शुं उपाय हशे ? कोइ कहे के अमुक अमुक जो खावामां आवे तो रोग थतो नश्री. ते सांजली ते वस्तु अजय होय तो पण खाइ जाय. वली ज्यारे शरीरमा रोग होय, त्यारे बहुज हाय हाय करे, आ. 'रंज करे, जोशीने पूजे के मारो आ रोग क्यारे जशे ? वैद्यने वारंवार पूजे के गमे तेवी दवानो उपयोग करो, अने मारो रोग टालो. वली मनमां विचारे के रखे मारा उपर कोश्ए जाउ कयु होय ! डेवटे रोग दूर करवा वास्ते, कुद विरुष्क, धर्मविरुद्ध आचरण करे, रोग दूर करवा वास्ते औषध, जडी, बूटी, मंत्र, तंत्र शीखे; मनमां विचारे के को वखत काम श्रावशे. आत्रीजो भेद . ". ४ चोथु अग्रशौच आर्तध्यान. नविष्य कालनी चिंता करे. जेम के श्रावता वर्षमां मोटां लग्न करीश, उकान मांडीश, घर बंधावीश, जे देखी बीजा बहुज आश्चर्य पामशे. वली फलाणा खेतरनो, वाडी श्रथवा बगीचो करवो बे, जेथी बीजार्जुना बाग नकामा थई जशे, पुइमनोनी गति ते देखीने बलशे; वली श्रमुक वस्तुउँनो में वेपार कर्यो , ते वस्तुऊनो नाव चडी जाय तो मने बहुज सारो लाज मले, इत्यादि अनेक तरेहनी नविष्य कालनी.चिंता करे, श्रा कुविकल्पो शेखचली सरखा . शति आर्तध्यान खरूपसंक्षेप. . . . हवे रौजध्यान, खरूप कहियें लियें. प्रथम हिंसानंद रौअध्यान. प्रस, स्थावर जीवोनी हिंसा करीने मनमां बहुज आनंद माने. बहु पाप युक्त कामो करी घर, दुकान, बाग, वाडी प्रमुख बनावे. जे देखी लोको प्रशंसा करे त्यारे मनमां बहुज हर्ष पामे. वली मनमां विचारे के मारा जेवो.अकलबाज कोण. ? थावी हिकमत कोण लडावि शके ? रसोर बनाववा प्रसंगे जदयाजदयनो देश मात्र विचार नहि करतां इंजियोनी रसरफि वास्ते, माल मसाला बहुज नाखी बहुज थानंदपूर्वक खाय; वसी जमणवार प्रसंगे तीव्र मानना उदयथी.पोतानी वाहवाह कहेव
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy