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________________ षष्ठ परिजेद. (२१) तर संक्रमणरूप पण शुद्धात्मानी पेठे अव्यथी अव्यांतरमा जाय , श्रथवा गुणोथी गुणांतरमां जाय , अथवा पर्यायोथी पर्यायांतरमां जायबे, तेमां सहनावी ते गुण बे, जेम के सुवर्णमां स्निग्धता, पीतता बे, इत्यादि, अने क्रमनावी ते पर्याय ने, जेमके सुवर्णमां मुखा, कुंडलादि. ते अव्यगुण पर्यायांतरोमांजे ध्यानमां अन्यत्व पृथक्त्व ते सपृथक्त्व . __ हवे शुक्ल ध्यानथी जे शुद्धि थाय ने ते कहिये बिये. समाधिवान् योगी पूर्वोक्तत्रयात्मक पृथक्त्व वितर्क सप्रविचार शुक्ल ध्यानने ध्यातां थकां परम प्रकृष्ट विशुद्धिने प्राप्त थाय बे, ते शुद्धि केवी ? मुक्ति रूप लक्ष्मीना मुखने देखाडनारी . हवे तेनुं कांश्क विशेष खरूप कहिये लियें. यद्यपि आ शुक्लध्याननो पायो प्रतिपाती (पतनशील) उत्पन्न थाय , तो पण अति विशुद्ध होवाथी अर्थात् अत्यंत निर्मल होवाथी उपरना गुणस्थानमा आरोह करवानी चाहना रह्या करे बे, अर्थात् उपरना गुणस्थानमा दोडेले. __ अपूर्वकरण गुणस्थानस्थ जीव निवाधिक, देवधिक, पंचेंजियजाति, प्रशस्त विहायोगति, त्रसनवक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, कार्मण, वैक्रिय उपांग, आहारक उपांग, आयसंस्थान, निर्माणनाम, तीर्थकरनाम, वर्णचतुष्क, अगुरुलघु, उपघात, उल्हास. था बत्रीश कर्मप्रकृतिनो बंधव्यवछेद थवाथी, बवीश कर्म प्रकृतिनो बंध करेले. तथा डेली त्रण संहनन, अने सम्यक्त्व मोह, आ चारनो उदयव्यवछेद थवाथी बोतेर कर्म प्रकृति वेदे बे. अने १३७ कर्म प्रकृतिनी सत्ता . इति दपक श्रेणि आठमा गुणस्थाननुं स्वरूप, हवे आपक, अनिवृत्तिनामा नवमा गुणस्थानकपर आरोह करे त्यारे जे जे कर्म प्रकृतिनो ज्यां ज्यां क्षय थाय , ते कहियेडिये. क्षपकमुनि नवमा गुणस्थानकना नवनाग करे .प्रथम नागमां सोल कर्म प्रकृतिनो क्षय करे , ते आ प्रमाणे बे, १ नरकगति, २ नरकानुपूर्वी, ३ तिर्यग्गति, ५ तिर्यंचानुपूर्वी, ५ साधारणनाम, ६ उद्योतनाम, ७ सूक्ष्म, बीजियजाति, एत्री प्रियजाति, १० चतुरिंजिय जाति, ११ एप्रियजाति, १५ आतपनाम, १५ स्त्याना त्रिक, १६ स्थावरनाम. तथा बीजा नागमां अप्रत्याख्यान कषायनी तथा प्रत्याख्यान क
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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