SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( २० ) जैनतत्त्वादर्श. कारण के पकनो जावज रूपक श्रेणिनुं कारण बे, परंतु प्राणायामादि जे आडंबर बे ते कारण नथी. यथा चर्पटिनापि ॥ नासाकंद नाडीवृंद, वायोश्चारः प्रत्याहारः ॥ प्राणायामो बीजग्रामो, ध्यानाच्यासो मंत्रन्यासः ॥ १ ॥ हृत्पद्मस्थं चूमध्यस्थं, नासाग्रस्थं श्वासांतःस्थं ॥ तेजः शुद्धं ध्यानं बुद्ध:, काराख्यं सूर्यप्रनाख्यं ॥ २ ॥ ब्रह्माकाशं शून्यानासं, मिथ्याजल्पं चिंताकल्पं ॥ कायाक्रांतं चित्तत्रान्तं त्यक्त्वा सर्व मिथ्या गर्व ॥ ३ ॥ गुर्वादिष्टं चिंतितमिष्टं, देहातीतं जावोपेतं ॥ त्यक्त्वा द्वंद्वं, नित्यानंद, शुद्धं तत्वं जानीहि त्वं ॥ ४ ॥ अन्यच्च ॥ योंकाराऽन्यसनं विचित्रक - रणैः, प्राणस्य वायोर्जया । तेजश्चितनमात्मकायकमले, शून्यांतरालंबनं ॥ त्यक्त्वा सर्वमिदं कलेवरगतं, चिंतामनोविज्रमं । तत्त्वं पश्यत जदपकल्पनकला, ऽतीतं खनावस्थितं ॥ १ ॥ श्र सर्व रूढिपूर्वक रूपक श्रेणिना आडंबर बे, परंतु तत्वथी तो मरुदेवादिवत् जावज प्रधान बे. " हवे शुक्ल ध्यानना प्रथम पायानुं नाम कहीयें बियें. मन, वचन, कायाना योगने वशकरनार मुनिने शुक्लध्याननो प्रथम पाद थाय बे, ते पाद केवो बे ? वितर्कसहित जे वर्ते ते सवितर्क, विचारसहित जे वर्ते ते सविचार, पृथक्त्वसहित जे वर्ते ते सपृथक्त्व. या त्र विशेष - णयुक्त होवाथी शुक्लध्यानना प्रथम पायातुं नाम सपृथक्त्व, सवितर्क, प्रविचार . हवे या त्रणे विशेषणोनुं स्वरूप कहीयें बीयें. पूर्वोक्त प्रथम शुक्लध्यान त्रयात्मक क्रमक्रमें गृहीत विशेष ऋण रूपें बे. तेमां श्रुतचिंतारूप वि तर्क बे, तथा शब्द अर्थ योगांतरमां जे संक्रमण कर ते विचार बे, अने द्रव्य, गुण, पर्यायादिथी जे अन्यपणुं वे ते पृथक्त्व बे. वे या त्र विशेषणना प्रगट अर्थ कहियें बियें, जे ध्यानमां अंतरंगध्वनिरूप वितर्क, विचार रूप होय ते सवितर्क ध्यान छे, कारण के स्वकीय निर्मल परमात्मतत्व अनुभवमय अंतरंग जावगत श्रागमना अवलंबनथी या सवितर्कध्यान थाय बे. जे ध्यानमां पूर्वोक्त वितर्क विचा रणरूप अर्थ अर्थातरमां संक्रमण होय, शब्दथी शब्दांतरमां संक्रमण होय, तथा योगथी योगांतरमां संक्रमण होय ते सविचार संक्रमण कहेवाय डे. तथा जे ध्यानमां पूर्वोक्त वितर्क सविचार अर्थ व्यंजन योग
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy