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________________ षष्ठ परिजेद. ( ए) रीते बार आंगल पर्यंत वारुण मंडल प्रचार अमृतमय पवन आकर्षणथी तेनुं नाम पूरकध्यानकर्म कहेवाय छे. हवे रेचक प्राणायाम कहियें डिये. पूरक ध्याननी अनंतर साधक योगी, योगसामर्थ्यथी तेमज प्राणायाम अज्यासबलथी रेचकनामा पवन, नाभिकमल उदरथी हलवे हलवे बहार काढे , तेनुं नाम रेचक ध्यान . यदाह ॥ वज्रासनः स्थिरवपुः स्थिरधीः सचित्त, मारोप्य रेचक समीरणजन्मचके ॥ खांतेन रेचयति नाडिगतं समीरं, तत्कर्म रेचक मिति प्रतिपत्तिमेति ॥१॥ हवे कुंजक ध्यान कहिये बियें. योगी कुंजकनामा पवन, नाजिपंकज कुनक ध्यान अर्थात् कुंजककर्मप्रयोगथी कुंनवत् अर्थात् घडारूपें श्रतिशयेंकरी स्थिर करे . ॥ यदाह ॥ चेतसि यति कुंजकचक्र, नाडिकासु निबिडीकृतवातः ॥ कुंलवत्तरति यजालमध्ये, तदंति किल कुंजककर्म ॥१॥ इति लेशमात्र प्राणायामस्वरूपं. . __ हवे पवन जीतवाथी मन वश थाय बे, तेनुं स्वरूप कहिये बियें. ज्यां मन , त्यां पवन , अने ज्यां पवन , त्यां मन . यदाह ॥ उग्धांबुवत् संमिलितौ सदैव, तुल्यक्रियौ मानसमारुतौ हि ॥ यावन्मनस्तत्र मरुत्प्रवृत्ति, र्यावन्मरुत्तत्र मनःप्रवृत्तिः॥१॥ तत्रैकनाशादपरस्य नाश, ए. कप्रवृत्तेरपरप्रवृत्तिः ॥ विध्वस्तघोरेंजियवर्गशुफि, स्तइंसनान्मोदपदस्य सिद्धिः॥॥ श्रा प्रमाणे पूरक, रेचक, कुंजक पवनोनां अनुक्रमें आकुंचन, निर्गमन साधीने, वायुनो संग्रह, तेमज चित्तनुं एकाग्रपणुं चिंतन करीने समाधिविषे निश्चलपणुं धारण करे , कारण के पवन जीतवाथीज मन निश्चल थाय . यदाह ॥ प्रचलति यदि, दोणी चक्र, चलंत्यचला अपि । प्रलयपवन, खालोला, श्चलंति पयोधयः॥ पवन जयिनः, स्वावष्ठंज, प्रकाशितशक्तयः । स्थिरपरिणते, रात्मध्याना, चलंति न योगिनः॥१॥ . हवे जावनीज प्रधानता, स्वरूप कहीये बियें, दपक श्रेणि आरोह करतां प्राणायामनो क्रम अर्थात् प्रौढ पवननो अभ्यासक्रम जे कहेलो बे, ते प्रागल्यता अर्थात् रूढिपूर्वक जे प्रसिद्ध बे, तेम बतावेलो डे परंतु प्राणायाम करे तोज दपकश्रेणिए चडी शके एवो कांश नियम. नथी,
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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