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________________ षष्ठ परिबेद. (२६ए) सुखे मलती होय तेनो मनोरथ को पण करतुं नथी. जे निरंतर मिष्टान्न खाय , अने मोटुं राज्य जोगवे बे, ते कदापि मिष्टान्न जोजन तथा राज्य जोगववानो मनोरथ करता नथी. ते कारणथी प्रमत्त गुणस्थानस्थ विवेकि पुरुषोए, परमसंवेग जावधी अप्रमत्त गुणस्थानकनो स्पर्श को होय ते पण सर्व प्रकारें परम शुद्ध परमात्मतत्व संवित्तिनो मनोरथ करवो, परंतु षट्कर्म, षडावश्यकादि व्यवहार क्रियानो परिहार न करवो, अने जे मूढ (अज्ञानी) योग ग्रहथी ग्रस्त , तेमज सदाचार व्यवहारथी पराङ्मुख दे, तेनो योगपण कांश कामनो नथी, तेमज तेनो पा लोक पण नथी, अने परलोक पण नश्री, अर्थात् ते जीवो जडात्मा होवाथी उन्नयनष्ट थाय ॥ यतः॥ ये तु योगग्रहग्रस्ताः, सदाचार पराङ्मुखाः ॥ एष तेषां च योगोऽपि, न लोकोपि जडात्मनां ॥१॥ इत्यादि. ते कारणथी साधुयें दिवसे तेमज रात्रिमा जे जे दूषणो तेमने लाग्यां होय, तेनो उछेद करवा वास्ते अवश्य षडावश्यकादि क्रिया करवी जोश्य. ज्यां सुधी उपरनां गुणस्थानकोथी साध्य जे निरालंबन ध्यान बे, ते प्राप्त न थाय, त्यां सुधी करवी जोश्य. प्रमत्त गुणस्थानस्थ जीव, चार प्रत्याख्याननो बंध व्यवछेद होवाथी वेसठ प्रकृतिनो बंध करे , तथा तिर्यग्गति, तिर्यगानुपूर्वी, नीचगोत्र, उद्योत तथा प्रत्याख्यान चार था आवप्रकृतिनो उदय व्यवछेद थवाथी अने थाहारक शरीर तेमज आहारक अंगोपांगनो उदय होवाथी एकाशी प्रकृति वेदे बे, अने एकसो आडत्रीश प्रकृतिनी सत्ता . हवे सातमा अप्रमत्तगुणस्थानकनुं स्वरूप लखिये बियें. पांच महाव्रतधारी साधु पांच प्रमादना अनावें, अप्रमत्तगुणस्थानस्थ होय. तेने संज्वलन चार कषायनो, तेमज नोकषायनो पण उदय मंद होय, तात्पर्य के, संज्वलन कषाय तेमज नोकषायनो जेवो जेवो मंद उदय होय तेवो तेवो साधु अप्रमत्त होय. यदाह ॥ यथा यथा न रोचंते, विषयाः सुलना अपि ॥ तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्वमुत्तमं ॥१॥ यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्वमुत्तमं ॥ तथा तथा न रोचंते, विषयाः सुलजा अपि ॥२॥ अर्थ:-जेम जेम सुखें प्राप्त थता विषयो रुचता नथी, तेम तेम उत्तमतत्त्व संवित्तिनो लाल थतो जाय , तथा जेम जेम उत्त
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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