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________________ (२०) जैनतत्त्वादर्श. मतत्त्व संवित्तिनो लाल यतो जाय , तेम तेम सुखें प्राप्त थता विषयो रुचता नथी. वली अप्रमत्तगुणस्थानकवाला जीव जेम जेम मोहनीयकमनो उपशम करवामां तेमज क्षय करवामां निपुण थता जाय डे तेम तेम सद्ध्याननो श्रारंज करे . दूर कयोंडे सर्वप्रमाद जेणे एवा जे जीव, तथा पंचमहाव्रतधारक साधु, अष्टादश सहस्र शीलांग लक्षण संयुक्त, सदागमअन्यासी ज्ञानवान् एकाग्रध्यानवान् (ज्ञान ध्यान रूप धन होवाथी ) मौनी मौनवान् (कारण के मौनवान्ज ध्यानरूप धनवान् होश शके बे) एवा पवित्रमुनि पूर्वोक्त सम्यक्त्वमोह, मिश्रमोह, मिथ्यात्वमोह अने अनंतानुबंधी चार, श्रा सात प्रकृति विना एकवीश प्रकृतिरूप मोहनीय कर्मने उपशम करवामां तेमज दय करवामां ज्यारे सन्मुख थायडे, त्यारे सालंबन ध्यान तजीने निरालंबन ध्यानमा प्रवेश करवानो आरंज करे. या निरालंबन ध्यानमा प्रवेश करनारा योगी त्रण प्रकारना . १ यथा प्रारंजकाः, ५ तन्निष्ठाः, ३ निष्पन्नयोगाः॥ यदाह ॥ सम्यग् नैसर्गिकी वा, विरतिपरिपति, प्राप्य सांसर्गिकी वा ॥ क्वाप्येकांते निविष्टाः, कपिचपलचलन्मानसस्तंननाय, शश्वन्नासाग्रपाली, घनघटितहशो, धीरवीरासनस्था। ये निष्पापाः समाधे, विदधति विधिनाऽरंजमारंजकास्ते ॥१॥ कुर्वाणोम रुतासनेडियमनः कुत्तर्षनिसाजयं।योंतं जल्पति रूपणानिरसकृत् तत्त्वं समन्यस्यति॥ सत्वानामुपरि प्रमोदकरुणा मैत्रीशं मन्यते। ध्यानाधिष्ठितचेष्टयाऽज्युदयते, तस्येह तन्निष्टता ॥॥ उपरतबहिरंतर्जदपकबोलमाले, लसदविकल विद्या पद्मिनीपूर्णमध्ये ॥ सततममृतमंतानसे यस्य हंसः, पिबति निरुपलेपः सोत्र निष्पन्नयोगी ॥३॥ हवे अप्रमत्तगुणस्थानमा ध्याननो संजव कहीये बियें, सर्वज्ञ- कथन करेलु धर्मध्यान मैत्रीप्रमुख अनेक नेदरूप ॥ यदाद ॥ मैत्र्यादिनिश्च तुउँदं, यहाज्ञादि चतुर्विधं ॥ रूपस्थादि चतुर्बा वा, धर्मध्यानं प्रकीर्तितम् ॥ १॥ मैत्रीप्रमोद कारुण्य, माध्यस्थानि नियोजयेत् ॥ धर्मध्यानमुपस्कर्तुं, तकि तस्य रसायनं ॥२॥ आज्ञापायविपाकानां, संस्थानस्य विचिंतनात् ॥श्वं वा ध्येयनेदेन, धर्मध्यानं प्रकीर्तितं ॥३॥ धर्मध्यान मैत्री जावप्रमुख चार नेद डे. तथा आज्ञाविचयप्रमुख चार नेदें , अने
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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