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________________ (शक्षण) जैनतत्त्वादर्श. श्रित्य च ॥ पर्यकेन मया शिवाय विधिवत् , स्थित्वैक जूजूदरी मध्य. स्थेन कदाचिदर्पितदृशा, स्थातव्यमंतर्मुखं ॥१॥ चित्ते निश्चलतांगते प्रशमिते, रागादि निखामदे । विखाणेऽक्षकदंबके विघटिते, ध्वांतत्रमारंजके ॥ आनंदे प्रविजृजिते पुरपते, आने समुन्मीलिते । मां रदयंति कदा वनस्थमनितो पुष्ठाशयाः श्वापदाः॥२॥ तथा श्रीसूरपनाचार्याः चित्तावदातैवदागमानां, वा नेष जैरागरुजं निवर्त्य ॥ मया कदा प्रौढसमाधिलक्ष्मी, इत्यादि । तथा श्रीहेमचंजसूरयः॥ वनपद्मासनासीनं, कोडस्थितमृगार्जकं ॥ कदा घ्रास्यंति वक्रो मां, चरंतो मृगयूथपाः॥१॥ शत्रौ मित्रे तूणे स्त्रैणे, हेम्नेश्मनि मणौ मृदि ॥ मोदे नवे जविष्यामि, निर्विशेषमतिः कदा ॥२॥ नावार्थः- चित्तवृत्तिनो निरोध करीने, ईप्रियसमूह अने तेना विषयोने दूर करीने, पवन अर्थात् श्वासोबासनी गत्यागतिनुं रोधन करीने, धैर्यतार्नु अवलंबन करीने, पद्मासन बेसीने, कल्याण करवा निमित्ते, विधियुक्त, कोश, पर्वतनी कंदरा (गुफा) मां बेसीने, एकवस्तु उपर स्थिर दृष्टि करी मुजने अंतर्मुख रहेवु योग्य . ॥१॥ चित्त निश्चल थतां, राग, द्वेष, कषाय, निशा अने मद शांत थतां जियसमूहकृत विकार दूर थतां, चमारंजक अंधकार प्रलय थतां, ज्ञाननो प्रकाश थतां, अने आनंद प्रगट वृद्धिमान् थतां, आत्म अवस्थामां स्थित एवा मारा जीवने वनमा रहेतां, पुष्टाशयवाला सिंह क्यारे रदा करशे ? ॥२॥ वली श्रीसूरप्रजाचार्य पण कहे , हे जगवन् ! तमारा आगम रूप नेषजथी, राग रूप रोगनिवर्त्तवाथी, निर्मल चित्तयुक्त थये, क्यारे एवो दिवस आवशे के जे दिवसे हुँ समाधिरूप लक्ष्मीनुं दर्शन करीश ? इत्यादि. तथा श्री हेमचंग सूरि कहे डे के, वनमां पद्मासनथी बेगं थकां, मारा खोलामां मृगनुं बचुं आवी बेसे, अने हरणनो खामि कालियार मारा मुखने सूंघे, ते समये हुं मारी समाधिमां निश्चल रहुँ॥१॥ तथा शत्रुमां, मित्रमां, तृणमां, स्त्रियोमा सुवर्णमां तेमज पाषाणमां, मणिमा तेमज माटिमां, अने मोदमां तेमज संसारमां एकसरखी मतिवालो क्यारे हुं थश्श ? ॥२॥ तेवीजरीतें मंत्री वस्तुपाल, तथा परमतमां नर्तृहरिए पण मनोरथ करेला बे, श्रने मनोरथ जे लोक करे जे ते पुःप्राप्य वस्तुनोज करे , जे वस्तु कष्टविना
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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