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________________ चतुर्थ परिच्छेद. (१२५) ढुं पण किंचित् मात्र, पूर्वाचार्यांनी युक्तियो या स्थले जाषाग्रंथमां लखुंडं. प्रथम, कालवादी कहे बे के, सर्व वस्तुनो कालज कर्त्ता बे, तेनुं खंमन लखुं बुं. हे कालवादि ! या जे काल बे ते शुं १ एक खजाव नियव्यापी बे ? २ किंवा समयादिरूपथी परिणामी बे ? जो प्रथम पक्ष मानशो तो ते युक्त बे, कारण के एवा कालने सिद्ध करनारुं कोईपण प्रमाण नथी. जेवो प्रथम पक्षमां तमे काल मान्यो बे, तेवो काल प्रत्यक्ष प्रमाणची उपलब्ध यतो नथी, तेमज एवा कालनुं कोइ लिंग पण अविनाभावरूप देखातुं नथी, ते कारणथी अनुमानथी पण सिद्ध थतुं नथी. पूर्वपक्ष:- केवी रीतें विनाजाव लिंगनो अभाव कहो बो ? कारण के जरत रामचंद्रादिविषे पूर्वापर व्यवहार देखाय बे, ते पूर्वापर व्यवहार वस्तुरूप मात्र निमित्त नथी; जो वस्तुरूप मात्र निमित्त होय तो वर्तमानकालमां वस्तुरूपना विद्यमानपणाथी तेवो व्यवहार होवो जोइयें. ते कारणथी जेणेकरीने या जरत रामादिविषे पूर्वापर व्यवहार बे, ते काल बे, तेवीज रीतें, पूर्वकालयोगी, पूर्वजरतचक्रवर्त्ती, अपरकालयोगी, अपर रामादि. उत्तरपक्षिनो तर्कः - जो जरत रामादिविषे पूर्वापर कालना योगथी पूर्वापर व्यवहार बे, तो कालनो पूर्वापर व्यवहार केम सिद्ध यशे ? पूर्वपक्षिनुं समाधानः - कालनो जे पूर्वापर व्यवहार बे ते अन्य बीजा कालना योगी बे. उत्तरपक्षः - जो बीजा कालना योगथी प्रथम कालनो पूर्वापर व्यवहार बे, तो बीजा कालनो पूर्वापर व्यवहार, त्रीजा कालना योगथी थयो, एम करतां करतां अनवस्था दूषणनो प्रसंग वेडे. पूर्वपक्ष:- ए दूषण मने लागतुं नथी, कारण के मे तो ते कालनाज स्वयमेव पूर्वापर विभाग मानिये बियें. बीजा कालादि योगथी मानता नथी. ॥ श्लोक ॥ पूर्वकालादियोगी यः पूर्वा दिव्यपदेशना ॥ पूर्वापरत्वं तस्यापि स्वरूपादेव नान्यतः ॥ १ ॥ अर्थ - जो पूर्वापर कालना योगी जरत रामादि बे तो जरत रामादि पूर्वापर व्यपदेशवाला बे, अने कालना जे पूर्वापर विभाग बे ते स्वतःज बे, परंतु अन्य कालादि योगथी नथी. : उत्तरपक्षः - हे पूर्वपक्षि ! या तमारुं केहेतुं कंठ लगी मदिरा पीनार
SR No.010519
Book TitleJain Tattvadarsha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijayanandsuri, Mulchand Nathubhai Vakil
PublisherAtmaram Jain Gyanshala
Publication Year1899
Total Pages369
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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