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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, सातवी भाग १०६ कि ग्लान साधु की सेवा करे । इसी ग्रन्थ में आगे कहा है कि साधु को सभी प्रयत्नों से ग्लान साधु की सेवा करनी चाहिये । जइतापासत्यो सणकु सीलनिहवगाणंवि देसिअं करणं । चरणकरणालसाणं सम्भाव परंमुहाणं च ॥ ४८ ॥ किं पुग जगणाकाणुज्ञयाण दंनिंदिआण गुन्ताणं । संविग्गविहारीणं सव्वपयतेण कायव्वं ॥ ४९ ॥ भावार्थ - जब चरण करण में प्रसादाचरण करने वाले सद्भावविमुख पार्श्वस्य, अवसन्न. कुशील और निह्नयों की वैयावृत्य करने के लिये भी कहा गया है तो फिर यतना में सावधान, जिनेन्द्रिय, मन वचन काया का गोपन करने वाले उद्यतविहारी मोक्षामिलापी साधु की वैयावृत्य तो सभी प्रपत्त करके करना ही चाहिये । इससे यह स्पष्ट है कि ग्लान साधु की सेवा करना मुनि के लिये आवश्यक है पर जब हम देखते हैं कि शास्त्रकारों ने वैयानुच्य न करने या उसकी उपेक्षा करने से अनेक दोष एवं प्रायश्चित्त बतलाये हैं तो यह सिद्ध होता है कि यह आवश्यक कर्त्तव्य है और शास्त्रकारों ने उसे मुनि की इच्छा पर नहीं छोड़ा है । बृहत्कल्पसूत्र के नियुक्ति भाष्य में जान की बात सुन उसकी वैयावृत्य न कर उसे टालने की इच्छा वाले साधु के लिये यह कहा हैसोऊण उ मिला उमगं गच्छ पडिवहं वावि । मरगाओ वा मर्ग संक्रमइ आणमाईणि ।। १८७१ ॥ भावार्थ - जो साधु खगच्छ या परगच्छ में किसी साधु की ग्लानावस्था का हाल सुन कर (वैयावृत्य से बचने के ख्याल से ) व की ओर जाने वाला रास्ता ग्रहण करता है 4 रास्ते से आया उसी तरफ वापिस लौट जाता है अथवा एक रास्ता छोड़ कर दूसरे मार्ग से जाने लगता है उसे अज्ञा, अनवस्था, fornia और विराधना दोप लगते हैं ।
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
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