SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 96
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० . श्री सैठिया जैन अन्धमाला' में भी दूसरों को दुःख न पहुंचाने वाला निरवध वचन प्रधान है। साधु को सावध सत्य का त्याग कर निरवध सत्य कहना चाहिये। प्रश्नव्याकरण सूत्र के दूसरे संवर द्वार में सत्य की महिमा कह कर आगे यह बतलाया है कि ऐसा सत्य न कहना चाहिये जो संयम में थोड़ा सा भी बाधक हो । जिन वचनों से प्राणी की हिंसा होती हो ऐसे वचन साधु को न कहना चाहिये । काणे को काणा, चोर को चोर. कहने से सामने वाले को दुःख होता है इसलिये ऐसा पापकारी सावध सत्य भी न कहना चाहिये । चारित्र का विनाश क ने वानी स्त्री आदि की विकथाएं भी उसे न करनी चाहिये । व्यर्थ का वाद और क तह तथा अनार्य वचनों का प्रयोग भी उसे न करना चाहिये । अपवाद (दूसरे के दूपण प्रगट करना) और विवाद करना साधु के लिये मना है। दूसरे की विडम्बना करने चाले तथा बल एवं दिठाई प्रधान वचन साधु को टालना चाहिये एवं निर्लज्ज तथा निन्दनीय शब्दों का व्यवहार न करना चाहिये। जो बात अच्छी तरह से देखी सुनी और जानी न हो वह भी साधु को न कहनी चाहिये । अपनी प्रशंसा और दूसरे की निन्दा भी न करनी चाहिये । जाति, कुल, बल, रूप, श्रुत, दान, धर्म आदि की अपेक्षा दूसरे की हीनता प्रगट हो ऐसे दुःखकारी शब्द मी साधु को न करना चाहिये । (१३) प्रश्न-क्या साधु के लिये ग्लान साधु की सेवा करना आवश्यक है या उसकी इच्छा पर निर्भर है ? उचर-चैयावृत्त्य आभ्यन्तर तप है। भगवती सूत्र के पचीसवें शतक के सातवें उद्देशे में वैयावृत्त्य के दस प्रकार दिये हैं उनमें एक प्रकार ग्लान की चैयावृत्त्य का है । ओपनियुक्ति में ग्लान द्वार में कहा है कि 'कुज्जा गिलाणगस्स उ पढमालिस जाव वहिगमणं' अर्थात् ज्यों ही साधु प्रथम मिना लाने यावत् बाहर जाने में समर्थ हो जाय
SR No.010514
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year2053
Total Pages210
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy