SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सग्रह, पाचवां भाग 457 waar munun vonan uw vw vow wo सर्वथा प्रकाश शून्य हो जाता है। ___ इसी प्रकार जो साधु क्षमा मार्दव आदि तथा ब्रह्मचर्य के गुणों में शिथिलता को प्राप्त होता जाता है वह अन्त में ब्रह्मचर्य शादि के गुणों से सर्वथा भ्रष्ट होजाता है। जिस प्रकार अमावस्या के चन्द्रमा की अपेक्षा शुक्ल पक्ष की मतिपदा का चन्द्रमा प्रकाश में कुछ अधिक होता है। प्रतिपदा की अपेक्षा द्वितीया का चन्द्रमा और विशेष प्रकाशमान होता है। इस तरह क्रमशः बढ़ते बढ़ते पूर्णिमा को अखण्ड और पूर्ण प्रकाशमान वन जाता है। इसी प्रकार जो साधु अप्रमादी बन कर अपने क्षमा मादिक यावत् ब्रह्मचर्य के गुणों को बढ़ाता है वह अन्त में जाकर सम्पूर्ण आत्मिक गुणों से युक्त हो जाता है और मोक्ष को प्राप्त कर लेता है। (11) दावद्रव रक्ष का दृष्टान्त ग्यारहवां 'दावद्रव ज्ञात' अध्ययन- धर्म सम्बन्धी मार्ग की आराधना करने वाले को सुख की प्राप्ति और विराधना करने वाले कोदुःख की प्राप्ति होती है। इसलिए इस अध्ययन में दावद्रव -- वृक्ष का दृष्टान्त दिया गया है। समुद्र के किनारे 'दावद्रव' नाम के एक तरह के वृक्ष होते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो समुद्र की हवा लेगने से मुरझा जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो द्वीप की हवा लगने से मुरझा कर सुख जाते हैं। कुछ ऐसे होते हैं जो द्वीप और समुद्र दोनों की हवा से नहीं सखते और कुछ ऐसे होते हैं जो दोनों की हवा न सह सकने के कारण सूख जाते हैं। इस दृष्टान्त के अनुसार साधुओं की चतुर्भङ्गी बतलाई गई है। यथा* कुछ साधु ऐसे होते हैं जो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy