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________________ 410 श्री सेठिया जैन मन्यमाला * MAVA NIvavrovo 862- ब्रह्मचर्य के अठारह भेद मन, वचन और काया को सांसारिक वासनाओं से स्टार श्रात्मचिन्तन में लगाना ब्रह्मचर्य है / इसके अठारह भेद हैंदिवा कामरइसुहातिविहं तिविहेण नवविहा विरई। श्रोरालिया उवितहातं बंभट्टदसभेय // अर्थात्- देवसम्धी भोगों का मन, वचन और काया से स्वयं सेवन करना, दूसरे से कराना तथा करते हुए को भला जानना, इस प्रकार नौ मेद हो जाते हैं / औदारिक अर्थात् मनुष्य, तिर्यञ्च सम्बन्धी भोगों के लिए भी इसी प्रकार नौ भेद हैं। कुल मिलाकर अठारह भेद हो जाते हैं। इन अठारह प्रकार के भोगों का सेवन न करनाअठारह प्रकार का ब्रह्मचर्य है। (समवायांग 18 वा समवाय) (प्र. सा• द्वार 168 पाया 61) 863- अब्रह्मचर्य के अठारह भेद ऊपर लिखे भोगों को सेवन करना अठारह प्रकार का अब्रह्मचर्य है। (सम० 18 वा समवाय) (अावश्यकनियुक्ति प्रतिक्रमणाध्ययन) ८६४-पौषध के अठारह दोष जो व्रत धर्म की पुष्टि करता है उसे पौषधवत कहते हैं मथवा अष्टमी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूर्णिमा रूप पर्व दिन धर्मवृद्धि के कारण होने से पौपध कहलाते हैं। इन पत्रों में उपवास करना पौपधोपचास व्रत है। यह व्रत चार प्रकार का है-(१)भाहार पौपध (2) शरीर पौपध (3) ब्रह्मचर्य पोपध (4) अव्यापार पौषध / __ आगर का त्याग करके धर्म का पोषण करना आहार पौषध है। स्नान, उवटन,वर्णक, विलेपन, पुष्प, गन्ध, ताम्बूल, वस्त्र, भाभरण रूप शरीर सत्कार का त्याग करना शरीर पोपध है।
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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