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________________ श्री जैन सिद्धान्त बोल सपह, पाचवा भाग 411 अब्रह्म (मैथुन) का त्याग कर कुशल अनुष्ठानों के सेवन द्वारा धर्मवृद्धि करना ब्रह्मचर्य पौषध है। कृषि, वाणिज्यादि सावध व्यापारों का त्याग कर धर्म का पोषण करना अव्यापार पौषध है। श्राहार तनुसत्कारा ब्रह्म सावद्य कर्मणाम् / स्यागः पर्व चतुष्टय्यां, तद्विदुः पौषधम्रतम् // भावार्थ- चारों पर्यों के दिन श्राहार, शरीर सत्कार, अब्रह्म और सावध व्यापारों का त्याग करना पौषधव्रत कहा गया है। उक्त पौषधत्रत के शास्त्रकारों ने अठारह दोष बताए हैं। वे येहैं(१) पौषध निमित्त लूंस ढूंस कर सरस माहार करना / (2) पौषध की पाली रात्रि में मैथुन सेवन करना / (3) पौषध के लिये नख, केश आदि का संस्कार करना। (4) पोषध के ख्याल से वस्त्र धोना या धुलवाना। (5) पौषध के लिये शरीर की शुश्रूषा करना। (6) पौषध के निमित्त माभूषण पहिनना। पौषधवत लेने के पहले दिन उक्त छः वातें करने से पौषध दक्षित होता है। इस लिये इनका सेवन न करना चाहिये। (7) अवती (व्रत न लिए हुए व्यक्ति) से बैयावृत्य कराना। (8) शरीर का मैल उतारना / (8) विनापूँजे शरीर खुजलाना। (10) अकाल में निद्रा लेना, जैसे-दिन में नींद लेना, पहर रात जाने के पहले सो जाना और पिछली रात में उठकर धर्मजागरण न करना। (11) विनापूँजे परठना। (12) निंदा, विकथा और हँसी मजाक करना। (13) सांसारिक वातों की चर्चा करना। (14) स्वयं डरना या दूसरों को डराना
SR No.010512
Book TitleJain Siddhanta Bol Sangraha Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhairodan Sethiya
PublisherJain Parmarthik Sanstha Bikaner
Publication Year1942
Total Pages529
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_related_other_literature
File Size20 MB
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